SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 525
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४५८ भगवती आराधना इय खामिय वेरग्गं अणुत्तरं तवसमाधिमारूढो । पफ्फोडितो विहरदि बहुभवबाधाकरं कम्मं ।।७१४॥ वटति अपरिदंता दिवा य रादो य सव्वपरियम्मे । पडिचरया गणहरया कम्मरयं णिज्जरेमाणा ॥७१५।। 'वति' वर्तन्ते । 'अपरिदता' अपरिधान्ताः । "दिवा य रादो य' दिने रात्रौ च । 'सव्वपरिकम्मे' सर्वपरिचरणे । 'पडिचरगा' निर्यापकाः । गणहरया गणान् धर्मस्थान धारयन्तीति गणधराः 'कम्मरयं' कर्माख्यं रजः 'णिज्जरमाणा' निर्जरयन्तः ॥७१५॥ जं बद्धमसंखेज्जाहिं रयं भवसदसहस्सकोडीहिं । सम्मत्तुप्पत्तीए खवेइ तं एयसमयेण ॥७१६॥ 'ज' यत् । 'बद्धं रयं' बद्धं रजः कर्म । यथा रजश्छादयति परस्य गुणं शरीरादेः कच्छूदद्रुप्रभृतिक दोषमावहति तद्वद्वोधादिगुणमवच्छादयति च विचित्रा विपदः तेन रज इव रज इत्युच्यते । 'भवसवसहस्स कोडीहिं' भवशतसहस्रकोटिभिः । तद्रजः 'खत्ति' क्षपयन्ति । केन ? 'सम्मत्तुप्पत्तीए' श्रद्धानोत्पत्त्या । 'एगसमयेण' एकेनैव समयेन । तथा चोक्तं-सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोह क्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जरा इति ॥ [ तत्त्वा० ९।४५ ] ॥७१६॥ एयसमएण विधुणदि उवउत्तो बहुभवज्जियं कम्मं । अण्णयरम्मि य जोग्गे पच्चक्खाणे विसेसेण ॥७१७॥ 'एगसमयेण विधुणदि' अल्पेन कालेन निधु नाति । 'उवउत्तो' परिणतः । क्व ? 'अण्णयरम्मि जोगें' यस्मिन्कस्मिश्चित तपसि । कि? 'बहभवज्जियं' अनेकभवसंचितं । 'कम्म' कर्म । 'पच्चक्खाणे उवजुत्तो विसेसेण गा०-इस प्रकार सर्वसंघको क्षमा प्रदान करके उत्कृष्ट वैराग्यको धारणकर, तप और समाधिमें लीन हुआ क्षपक भवभवमें कष्ट देनेवाले कर्मोंकी निर्जरा करता है ।।७१४।। गा०-धार्मिकोंका संरक्षण करनेवाले निर्यापक मुनिगण रात दिन विना थके उस क्षपककी समस्त परिचर्या में लगे रहते हैं । और इस प्रकार कर्मोंकी निर्जरा करते हैं ।।७१५।। गाo.-असंख्यात लक्षकोटिभवोंमें जो कर्मरज बाँधा है उसे सम्यक्त्वकी उत्पत्ति होनेपर एक समयमें ही जीव नष्ट कर देता है ॥७१६|| टी०-जैसे रज अर्थात् धूल शरीर आदिके सौन्दर्यको ढाँक देती है और शरीर में दाद खाज आदि दोष उत्पन्न करती है वैसे ही कर्म जीवके ज्ञानादिगुणोंको ढाँकता है और अनेक कष्ट देता है इसलिए उसे रजके समान होनेसे रज कहा है। असंख्यातभवोंमें संचित कर्मरज सम्यग्दर्शनके उत्पन्न होनेपर एक समयमें ही निर्जीर्ण हो जाती है। तत्त्वार्थसूत्रमें कहा हैसम्यग्दृष्टी, श्रावक, प्रमत्तविरत, अनन्तानुबन्धीका विसंयोजक, दर्शनमोहका क्षपक, उपशम श्रेणिवाला, उपशान्तमोही, क्षपकश्रेणिवाला, क्षीणमोही और अरहन्तके उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी निर्जरा होती है ।।७१६।। __ गा०—जिस किसी तपमें लीन हुआ आत्मा अनेकभवोंमें संचितकर्मोको अल्पसमयमें ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy