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________________ ४५९ विजयोदया टीका विधुणदि' यावज्जीवं चतुर्विधाहारत्यागे परिणतः विशेषेण निरस्यति ॥७१७।। एवं पडिक्कमणाए कोउसग्गे य विणयसज्झाए । अणुपेहासु य जुत्तो संथारगओ धुणदि कम्मं ॥७१८॥ ‘एवं' उक्तेन क्रमेण । 'पडिक्कमणगे' प्रतिक्रमणे । 'काउस्सगे य' कायोत्सर्गे च । 'विणयसज्झाए' विनयस्वाध्याययोः । 'अणुपेहासु य जुत्तो' अनुप्रेक्षासु च युक्तः । 'संथारगदो' संस्तरारूढः । 'कम्मं घुपदि' कर्म क्षपयति । खवणं गदं ॥७१८।। इत उत्तरं अनुशासनं प्रक्रम्यते इति निगदति णिज्जवया आयरिया संथारत्थस्स दिति अणुसिट्टि । संवेगं णिन्वेगं जणंतयं कण्णजावं से ।।७१९॥ 'णिज्जवगा आइरिया' निर्यापकाः सूरयः । 'अणुसिटिठ दिति' श्रुतज्ञानानुसारेण शिक्षा प्रयच्छन्ति । 'संथारत्थस्स' संस्तरस्थस्य । 'संवेगं' संसारभीरुतां । 'णिवेग' वैराग्यं च । 'जणंतगं' उत्पादयन्तं । 'कन्न जावं' कर्णजापं । 'से' तस्मै क्षपकाय ।।७१९।। णिस्सल्लो कदसुद्धी विज्जावच्चकरवसधिसंथारं । उवधिं च सोधइत्ता सल्लेहण भो कुण इदाणिं ॥७२०॥ 'णिस्सल्लो' मिथ्यादर्शनं, माया, निदानं इति त्रीणि शल्यानि तेभ्यो निःक्रान्तः । तत्त्वश्रद्धानेन, ऋजुतया, भोगनिस्पृहतया वा 'कदसुद्धो' कृता शुद्धिनिर्मलता रत्नत्रये येन स कृतशुद्धिः । विज्जावच्चकरवसधिसंथारं' विविधा आपत विपत इत्युच्यते । व्याधय. उपसर्गाः. परीषहा. असंयमो. मिथ्याज्ञानं भेदेन तस्यामापदि यत्प्रतिविधानं तद्वैयावृत्त्यं तत्करोति य आत्मनः स वैयावृत्त्यकरस्तं। वसतिसंवारं निर्जीण कर देता है । और जो जीवनपर्यन्त चारों प्रकारके आहारका त्याग करता है वह विशेषरूपसे कर्मोंकी निर्जरा करता है ।।७१७।। गा०-इस प्रकार संस्तरपर आरूढ क्षपक प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, विनय, स्वाध्याय और बारह भावनाओंमें लगनेपर कर्मोंकी निर्जरा करता है ।।७१८॥ आगे कहते हैं कि क्षपकको सूरि शिक्षा देते हैं गा०-निर्यापक आचार्य संस्तरपर आरूढ़ क्षपकको श्रुतज्ञानके अनुसार उसके कानमें शिक्षा देते हैं। वह शिक्षा संसारसे भय और वैराग्यको उत्पन्न करती है ।।७१९।। कानमें क्या शिक्षा देते हैं, यह कहते हैं गा०-हे क्षपक ! निःशल्य होकर, रत्नत्रयको निर्मल करके तथा वैयावृत्य करनेवाले, वसति संस्तर और पीछी आदि उपधिका शोधन करके अब सल्लेखना करो ॥७२०॥ टो०-मिथ्यादर्शन, माया, निदान ये तीन शल्य हैं। तत्त्वश्रद्धानसे मिथ्यादर्शनको, सरलतासे मायाको और भोगोंकी निस्पृहतासे निदानको दूर करके निःशल्य बनो। व्याधि, उपसर्ग, परीषह, असंयम, मिथ्याज्ञान आदिके भेदसे विविध आपदाओंको विपदा कहते हैं। उस विपदाके आनेपर उसके प्रतिकार करनेको वैयावृत्य कहते हैं। जो क्षपककी वैयावृत्य करता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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