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________________ विजयोदया टीका १६९ गुरुं प्रत्यवज्ञा, निंदा, संभ्रमः, तत्प्रतिकूलवृत्तितेत्येवमादयः । "पियहिदे य परिणामो' गुरोर्यत्प्रियं तस्मै यद्धितं आत्मने वा तत्र परिणामः । ‘णादब्वो' ज्ञातव्यः । 'संखोवेण' समासेन । “एसो' एषः । 'माणस्सिगो' मानसिकः । 'विणओ' विनयः ॥१२७॥ . इय एसो पच्चक्खो विणओ पारोक्खिओ वि जं गुरुणो । विरहम्मि विवट्टिज्जइ आणाणिदेसचरियाए ॥१२८॥ 'इय' एवं । 'एसो' एषः । 'पच्चक्खो' प्रत्यक्षो विनयः। सन्निहितगुरुविषयत्वात् । 'पारोक्खिगो' वि गुरोः परोक्ष क्रियमाणोऽपि विनयः । कोऽसाविति चेदाह-'गुरुणो विरहम्मि विवट्टिज्जइ' गुरोविरहेऽपि यत् क्रियते । 'आणाणिद्देसचरियाए' आज्ञायाम्-इत्थमेव भवता कार्य मुमुक्षुणा न कदाचनेत्यमिति यन्निर्दिश्यते तदाज्ञानिर्देशः । 'बढ्दतगो विहारो दंसणणाणचरणेसु कादवो' इत्येवमादिसदृशः ॥१२८॥ न गुरुष्वेव विनयः कार्य इति ग्रहीतव्यं, एतेष्वपि विनयः कर्तव्य इत्याह राइणिय अराइणीएसु अज्जासु चेव गिहिवग्गे । विणओ जाहरिहो सो कायवो अप्पमत्तेण ॥ १२९॥ 'राइणिय अराइणिएसु' यथा रत्नानि दुर्लभानि अभिलषितदानक्षमाणि तथैव सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि श्रद्धानादिपरिणामेनोत्कृष्टेन वर्तमानः राइणिय इत्युच्यते । आत्मनो न्यूनरत्नत्रया अराइणिया अथवा 'रादिणिग ऊमरादिणिगेसु' ज्येष्ठकनिष्ठव्रतेषु च शेषं सुगमं ।।१२९।। करना निन्दा करना, उनके प्रतिकूल चलना इत्यादि पाप परिणामोंको छोड़ना। और गुरुको जो प्रिय हो और हितकर हो उसमें ही परिणाम लगाना। ये संक्षेपसे मानसिक विनय हैं ।।१२७॥ गा०—इस प्रकार यह प्रत्यक्ष विनय है, परोक्ष विनय भी वह है जो गुरुके अभावमें उनकी आज्ञा निर्देशका आचरण करनेमें की जाती है ॥१२८॥ टी-यह प्रत्यक्ष विनय है क्योंकि गुरुके सामनेकी जाती है और गुरुके अभावमें जो उनकी आज्ञाका पालन किया जाता है वह गुरुके परोक्षमें होनेसे परोक्ष विनय है। 'आप मुमुक्षु हैं आपको ऐसा ही करना चाहिये और कभी भी उसके विपरीत नहीं करना चाहिये' यह आज्ञा निर्देश है। जैसे 'सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक् चारित्रमें सदा विहार करना चाहिये', इत्यादि ॥१२८॥ _ 'न केवल गुरुकी ही विनय करना चाहिये किन्तु इनकी भी विनय करना चाहिये यह कहते हैं . गा०-रत्नत्रयमें जो अपनेसे उत्कृष्ट हैं, रत्नत्रयमें जो अपनेसे हीन है उनमें, आर्यिकाओंमें और गृहस्थवर्गमें वह विनय जो जिस योग्य हो, प्रमाद रहित होकर करना ही चाहिये ।।१२९।। टी-जिस प्रकार इच्छित वस्तुको देनेमें समर्थ रत्न दुर्लभ हैं उसी तरह सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रत्न शब्दसे कहे गये हैं। अत: जो उत्कृष्ट श्रद्धान आदि परिणामों से युक्त हैं तथा अपनेसे न्यून रत्नत्रयसे युक्त हैं उनकी विनय करना चाहिये । अथवा 'रादिणिग ऊमरादिणिगेसु' ऐसा पाठ होनेपर भी अपनेसे जो व्रतोंमें ज्येष्ठ हैं और कनिष्ट हैं उनकी विनय करना चाहिये । शेष गाथा सुगम है ॥१२९।। २२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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