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भगवती आराधना
उवसंतवयणमगिहत्थवयणमकिरिय महीलणं वयणं ।
एसो वाइयविणओ जहारिहो होदि कादव्व ॥ १२६ ॥
'उवसंतवयणं' प्रशांतरागकोपः उपशांतः तस्य वचनं उपशांतवचनं । विरागस्य विशेषस्य च यद्वचस्तदेव भाष्यं । 'अगिहत्थवयणं' गृहस्था मिथ्यादृष्टयोऽसंयता अयोग्यवचनविकल्पानभिज्ञास्तेषां यद्वचनं न भवति तस्य अभिधानं । 'अकिरियं' षट्कर्मव्यावर्णनपरं यन्न भवति । 'अहोलणं' परानवज्ञाकारि । 'एसो' व्यावर्णितवचनव्यापारः । 'वाचिगविणओ' वाग्विनयो । 'जधारिहं' यथाहं । 'होदि कादव्वों' कर्तव्यो भवति ॥ १२६ ॥
मानसिक विनयं निरूपयति
पापविसोत्तिग परिणामवज्जणं पियहिदे य परिणामों । णायव्वो संखेवेण एसो माणस्सिओ विणओ || १२७||
'पापविसोत्तिगपरिणामवज्जणं' पापशब्देन अशुभकर्माण्युच्यते । स्रोतः प्रवाहः । स्रोत इव अविच्छेदेन प्रवृत्तेः कर्माणि अपि पापविस्रोतः शब्देन उच्यते । पापविस्रोतः प्रयोजनाः परिणामा ये तेषां वर्जनं । इह गुरुविनयस्य प्रस्तुतत्वात् गुरुविषयोऽशुभः परिणामः आत्मनो यथेष्टचारित्व निवारणजनितः क्रोधः । अविनीततादर्शनादनुग्रह भावमपेक्ष्य नाध्यापयति पूर्ववन्न मया सह संभाषणं करोति इति वा क्रोधः । गुरुविनये आलस्यं,
गा०- -उपशान्त वचन, जो वचन गृहस्थों के योग्य नहीं हैं, कृषि आदि आरम्भ से शून्य वचन, दूसरों की अवज्ञा न करने वाला वचन बोलना यह यथा योग्य वाचिकविनय करने योग्य होती है ॥ १२६॥
टी० - जिसका राग द्वेष शान्त हो गया है उसे उपशान्त कहते हैं । उसका वचन उपशान्त वचन है । अर्थात् राग रहित और रोष रहितका जो वचन होता है वही बोलना चाहिये । गृहस्थ अर्थात् मिथ्यादृष्टि और असंयमी जो योग्य अयोग्य वचनोंको नहीं जानते, उनका जो वचन हो वह नहीं बोलना जो वचन वे नहीं बोलते वही बोलना चाहिये । जिस वचन में असि, मषी, कृषि, सेवा, वाणिज्य आदि षट्कर्मोंका उपदेश न हो वह बोलना चाहिये । तथा जो वचन दूसरेका निरादर न करता हो वह बोलना चाहिये। ये जो वचन कहे हैं इनका बोलना वचन विनय है । उसको यथायोग्य करना चाहिये ॥ १२६॥
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मानसिक विनय को कहते हैं --
गा०-- पापको लाने वाले परिणामोंको न करना, जो गुरुको प्रिय और हितकर हो उसीमें परिणाम लगाना, यह संक्षेपसे मानसिक विनय जानना ॥ १२७ ॥
टी० – पाप शब्दसे अशुभ कर्मोंको कहा है । स्रोतका अर्थ प्रवाह है । प्रवाहकी तरह लगातार होनेसे कर्मोंको भी पाप विस्रोत शब्दसे कहा है । पापको लाना ही जिनका काम है उन परिणामोंको त्यागना चाहिये । यह गुरु विनयका प्रकरण होनेसे गुरु विषयक अशुभ परिणाम लेना । गुरुके द्वारा अपनी स्वेच्छाचारिताका निवारण करनेसे क्रोध उत्पन्न होना, शिष्यको अविनयी देख उसपर गुरु कृपा न करे तो 'मुझे पहलेकी तरह नहीं पढ़ाते हैं न मेरे साथ पहलेकी तरह वार्तालाप करते हैं इस प्रकार क्रोध करना, गुरुकी विनय में प्रमाद करना, गुरुकी अवज्ञा
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