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________________ प्रस्तावना भर आराधना करनेका सुफल मरणकालमें आराधना है। उसमें यदि आराधक चूक जाता है तो उसके जीवनभरकी आराधना निष्फल हो जाती है। इसीसे इस ग्रन्थमें आराधना नाम देकर उसके साथ अत्यन्त पूज्यता सूचक विशेषण भगवती लगाया है। जिस आराधनाके द्वारा आराधक शरीर त्यागकर अपुनर्जन्म जैसे निर्वाणका लाभ करता है और भगवान बनता है उसे भगवती कहना सर्वथा उपयुक्त है। ४. ग्रन्थमें चचित मुख्य विषय जैसा विषय परिचयसे स्पष्ट है इस ग्रन्थका मुख्य प्रतिपाद्य विषय है मरणके प्रकार । यद्यपि मरणके सतरह भेद कहे हैं किन्तु ग्रन्थकारने उनमेंसे पाँच प्रकारके ही मरणोंका कथन किया है। वे हैं केवलज्ञानीका मरण अर्थात् निर्वाण लाभ पण्डितमरण है। विरताविरत अर्थात् देशसंयमीका मरण बाल पण्डितमरण है । अविरत सम्यग्दृष्टीका मरण बालमरण है और मिथ्या दृष्टिका मरण बालबालमरण है। तथा शास्त्रानुसार आचरण करनेवाले साधुका मरण पंडितमरण है उसके तीन प्रकार हैं। उनमेंसे भक्त प्रतिज्ञा नामक पण्डित मरणका ही इस ग्रन्थमें वर्णन विशेष रूपसे है। गाथा २८ में जो 'साहुस्स' के साथ 'जहुत्तचारिस्स' विशेषण दिया है वह बहुत महत्त्वका है। जो साधु होकर शास्त्रानुसार आचरण करते हुए समाधिपूर्वक मरण करता है उसीका मरण पण्डितमरण है केवल साधुपद स्वीकार कर लेने मात्रसे पण्डितमरण नहीं होता। ___ समाधिपूर्वक मरण और आत्मघात-आजके अनेक विद्वान भी जो जिनागमसे पूर्णतया परिचित नहीं हैं किसी जैन साधूके समाधिपूर्वक मरणको भी आत्मघात जैसे दूषित शब्दसे कहते हुए सुने जाते हैं। उन्हें यह ध्यानमें रखना चाहिये कि जैन साधु किस दशामें समाधि लेनेके लिये तैयार होता है । गाथा ७०-७३ में कहा है- . ____ यदि किसीको साधुपदके लिये हानिकर असाध्य व्याधि हो गई हो, या अचानक कोई ऐसा उपसर्ग आ जावे जिसमें जीवन पर संकट हो, या अपने इष्टमित्र ही अपने चारित्रका घात करने पर उतर आवे, या भयंकर दुर्भिक्ष हो जिसमें साधुचर्याके योग्य गोचरी मिलना संभव न हो, या आँखोंसे कम दिखाई देता हो, कानोंसे कम सुनाई पड़ता हो, या पैरोंमें चलने फिरनेकी शक्ति न हो, अन्य भी इस प्रकारके कारण उपस्थित होने पर ही साधु समाधि लेनेका संकल्प करता है। इसके विपरीत जिसका मुनिधर्म निरतिचार पूर्वक पल रहा है, दुभिक्ष आदि भी नहीं हैं, वह भी यदि समाधिके लिये उत्सुक होता है तो समझना चाहिये कि उसे मुनिधर्मसे ही विरक्ति : हो गई है ( ७५ )। इतना स्पष्ट विधान होते हुए भी जैन समाधिको आत्मघातकी संज्ञा देना अत्यन्त अनुचित है। इसके विपरीत हिन्दू धर्मशास्त्रोंमें जो धर्मके नामपर पर्वतसे गिरकर या आगमें जलकर मरनेका विधान है वह आत्मघातसे भी क्रूर है। इस तरहके मरणको किसी भी तरह धर्म नहीं कहा जा सकता। १ देखो ‘तुलसीप्रज्ञा' अप्रैल सितम्बर १९७७ जैन विश्व भारती लाडतुं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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