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________________ विजयोदया टीका १८७ कानन्तसुखानुभवलम्पटोऽपि, अवधीरितेन्द्रियसुखखेदोऽपि, अपरिप्राप्तसंयमघातिकर्मक्षयोपशमः, न चारित्रे प्रयतते, न परान्प्रवर्तयितुमीहते । सुविशुद्धज्ञानदर्शनोऽपि न विना समीचीनं चारित्रं तपश्च, कर्माणि निरवशेष क्षपयितुं घटते । अनेकसमुद्रगणनायुःस्थितितया दीर्घसंसारी वराकोऽस्मदादिः क्लिश्यति । उत्यातुमभिलपन्नपि दारको यथा पतत्येवमपि जनश्चारित्राभिलाष्यपि तद्वोढमसमर्थस्तिष्ठति । यूयं पुविदितवेदितव्याः क्षयोपशमपरिप्राप्तिनिवृत्तिपरिणामाः, पूज्यतमाः जन्मान्तरेऽस्माकमपीदृशी वीतरागता सकलारम्भपरिग्रहपरित्यागोद्योगो विनेयजनोपकारशक्तिश्च भवत्प्रसादादस्यानुमननाच्च भवतु सज्जीकृतमिदं विमानं आनीतमलंकरोतु देवः इत्युपरतवचसि सुराधिपे हर्षविपादपरवशं ज्ञातिवर्ग अन्तःपुराणि परिवारं चावलोक्य कृपया जिना वदन्ति चिरसंवासादल्पकोपकारापेक्षया जनस्यानुरागो भवति तदनुसारी कोपस्ताभ्यां दुरन्तकर्मादानं ततो भवति ममेदंभावः सर्वदुःखानां मूलमपनेतुमर्हति विद्वान् । न हि कस्यचित् किचिन्मित्रं, धनं, शरीरं वानपाय्यस्ति । पात्रे समिता हि बन्धवः, परिवाराश्च, धनं पुनरर्जने विनाशे च महतीमानयति दुःखासिकां । तदथिभिरन्यैश्च सह विरोधं कारयति । तृष्णां प्रकर्षवतीमादधाति लवणजलपीतिमिव । बामलोचनाः पुनः सुरा इव चित्तं मोहयन्ति, व्यलीकरोदनेन हसनेन चाटुभिश्च पुंसामल्पसत्त्वानां चेतः स्ववशीकुर्वन्ति । चर्ममयपुत्रिकासु, चपलासु, संध्याम्बुदावलीवास्थिररागासु, मायाजननीषु, मृषाचेटीनायिकासु, सुगतिवज्रार्गलयष्टिपु करता है-अच्युतेन्द्र आदि समस्त इन्द्रगण भगवान्के निष्क्रमण कल्याणक सम्बन्धी परिचर्या करनेके अभिलाषी हैं । हम मुक्तिके मार्गको जानते हैं । स्वाधीन ज्ञानात्मक अनन्त सुखका अनुभव करनेके लिये भी आतुर हैं, इन्द्रिय सुखको भी खेद रूप जानकर उसकी उपेक्षा करते हैं। किन्तु संयमका घात करने वाले कर्मका क्षयोपशम हमें प्राप्त नहीं हैं। इसलिये न हम स्वयं चारित्रमें प्रवृत्त होते हैं और न दूसरोंको ही प्रवृत्त करना पसन्द करते हैं । सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानसे युक्त व्यक्ति भी समीचीन चारित्र और तपके बिना समस्त कर्मोका क्षय नहीं कर सकता। अनेक सागरों प्रमाण आयु होनेसे दीर्घ संसारी हमलोग कष्ट उठाते हैं। जैसे शिशु उठना चाहते हुए भी गिरता है वैसे ही हम लोग चारित्रके अभिलाषी होते हुए भी उसे धारण करने में असमर्थ रहते हैं । आप तो सब कुछ जानते हैं। चारित्रमोहका क्षयोपशम होनेसे आपके निवृत्ति रूप परिणाम हुए हैं । आप पूज्यतम हैं। आपके प्रसादसे तथा आपकी अनुमोदना करनेसे आगामी जन्ममें हमें भी इस प्रकारको वीतरागता, समस्त आरम्भ और परिग्रहको त्यागनेका उद्योग तथा भव्य जीवोंका उपकार करनेकी शक्ति प्राप्त हो । यह सजाया हुआ विमान तैयार है, देव ! इसे सुशोभित करें। देवेन्द्रके कथनके पश्चात् अन्तःपुर, परिवार और ज्ञातिवर्गको हर्ष और विषादमें देखकर जिनदेव कृपापूर्वक कहते हैं-चिरकाल तक साथ रहनेसे तथा थोड़ा बहुत उपकार करनेसे लोगोंमें अनुराग होता है तथा कोप भी होता है। इस अनुराग और कोपसे दुरन्तकर्मोका बन्ध होता है । उससे 'यह मेरा है' इस प्रकारका भाव होता है, यह सब दुःखोंका मूल है। विद्वान्को करना चाहिए। न किसीका कोई मित्र है और न धन और शरीर ही स्थायी हैं। बन्ध बान्धव और परिवार यानपात्रमें मिले हुए पुरुषोंके समान हैं। धनके कमानेमें और कमाये हुए धनके नष्ट हो जानेपर वहुत दुःख होता है। उस धनके अर्थी अन्यजनोंसे विरोध होता है। जैसे खारा जल पीनेसे प्यास बढ़ती है वैसे ही धन पानेसे धनकी तृष्णा बढ़ती है। स्त्रियाँ मदिराकी तरह चित्तको मोहित करती हैं। वनावटी रोने और हँसने तथा मीठे वचनोंसे कमजोर मनुष्योंके चित्तको अपने वशमें कर लेती हैं। स्त्रियाँ चर्मनिर्मित पुतलियाँ हैं, चंचल होती हैं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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