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________________ १८८ भगवती आराधना कोऽनुरागः प्रज्ञावताम् ? शरीरं पुनरिदमनेकाशुचिनिधानं, व.चारपुचवत्प्राणभतामनपायी भारः महारोगनागानां वल्मीकीभूतं, जराव्याघ्रीनिवासविल, नेत्रखण्डचर्मवेष्टितलोष्टवदन्तनि:सारं बहिर्मनोहरं, गुणः पुनरत्र एक एव धर्मसहायता । गिरिनदीस्रोतांसीवानवस्थितानि यौवनानि । तणाग्निज्वाला इव संपदः क्षणमात्रं दृष्टनष्टा । इत्थमवगम्य मा कृथा वृथा प्रमादं जननरत्नाकरपारगमनाय कुरुतोद्योगं । मर्षणीयोऽस्माभिः प्रमादात्कृतोपराध इति । भगवद्भारतीसमनन्तरं सुरकुमारकरप्रहताः समन्ततो दुन्दुभयो ध्वनन्ति । सकलं च जगदिन्दुप्रमुखं जयध्वनिमुखरं जायते । समन्तात्सुरतरुण्यः सविलासं नृत्तमारभन्ते । जगन्नाथाश्च त्रिलोकभूषणा धवलदुकूलपरिधानाः परमशुक्ललेश्यया निवृतिसंफल्येव मुक्ताकण्ठिकाव्याजेनोपगतयालंकृतग्रीवाः विरागांणामपि मुखरागकरणे पाटवं नः पश्यतेति दर्शयद्भयामिव कुण्डलाभ्यां विराजमानपूर्णमसृणगण्डस्थलाः । वृत्तं प्रियं एषां चेन्नोवसर इतीवोपगतेन कटकद्वयेनाश्लिष्टप्रकोष्टाः । यत्रामीषामतिशयरत्नाभिमानः तत्पश्यामः स्थित्वोच्चरितीवोत्तमाङ्गस्थेन मुकुटरत्नकलापेन शोभमानः निर्वाणपुरमिव विमानं प्रविशन्ति । ततः शतमखयुग्मवाहस्कन्धोत्क्षिप्तेन विमानेन सदेवीकचतुनिकायामरसप्तानीक परिवृतेन गत्वा अवतीर्य सन्ध्याकालीन मेघमालाकी तरह उनका राग अस्थिर होता है। वे स्वभावसे मायावी होती हैं, सुगतिके लिए वज्रनिर्मित अर्गला हैं। उनमें बुद्धिमानोंका कैसा अनुराग ? यह शरीर अनेक अपवित्र वस्तुओंकी खान है, कचरेके ढेरकी तरह प्राणियोंका ऐसा भार है जो कभी नष्ट नहीं होता। महारोगरूपी सोंके लिए वामी है और जरारूपी सिंहनीके रहने के लिए विल है । जैसे लोष्ठको चमड़ेसे मढ़कर उसपर आँखें लगा देनेपर वह बाहरसे सून्दर और भीतरसे निःसार होता है उसी तरह यह शरीर भी बाहरसे सन्दर और भीतरसे निःसार है। इसमें केवल एक ही गण है कि यह धर्ममें सहायक होता है। पहाडी नदीके स्रोतोंकी तरह यौवन स्थायी नहीं है। तणोंकी आगकी लपटोंकी तरह सम्पदा क्षणमात्रमें देखते-देखते नष्ट हो जाती है . ये सब जानकर वथा प्रमाद मत करो, जन्म समुद्रको पार करनेके लिए उद्योग करो। हमसे प्रमादवश जो अपराध हुए उन्हें क्षमा करें। भगवान्की वाणीके पश्चात् देवकुमार दुंदुभियाँ बजाते हैं। इन्द्र आदि सब लोग जय जयकार करते हैं। देवांगनाएँ विलासपूर्ण नृत्य आरम्भ करती हैं। तीनों लोकोंके भूषण और जगत्के स्वामी जिनदेव सफेद वस्त्र धारण करते हैं। गलेमें मोतियोंकी माला पहने हैं मानों मुक्तिकी दूतीके समान परमशुक्ल लेश्याने उस मुक्तामालाके व्याजसे भगवान्के कण्ठको सुशोभित किया है। दोनों कानोंके कुण्डलोंसे भगवान्का स्निग्ध गण्डस्थल शोभित है, मानों दोनों कुण्डल यह दिखला रहे हैं कि विरागोंके भी मुखको रागयुक्त (लाल) करने में हमारा चातुर्य लोग देखें। दोनों हाथोंमें दो गोल कड़े हैं। वे गोल कड़े मानों यह विचार कर ही आये हैं कि भगवान्को वृत्त प्रिय है। वृत्तका अर्थ चारित्र भी है और गोल भी। सिरपर रत्नमयो मुकुट शोभित है। रत्नोंने सोचा-इन्हें रत्नों (रत्नत्रय) का बड़ा अभिमान है जरा इनके साथ रहकर देखें तो । इस प्रकारसे आभूषित भगवान् मोक्षपुरीके द्वारके समान विमानमें प्रवेश करते हैं। उस विमानको इन्द्र अपने कन्धोंपर उठाते हैं। देवांगनाओंके साथ चारों निकायोंके देव और उनकी सातों सेनाएँ विमानको घेरे होती हैं । उस विमानसे जाकर भगवान् रमणीक स्थानमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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