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________________ ४२४ भगवती आराधना प्रवेशः । कार्यापदेशेन यथा परे न जानन्ति तथा वा । भद्रकं भुक्त्वा विरसमशनं भुक्तमिति कथनं । ग्लानस्याचार्यादेर्वा वैयावृत्यं करिष्यामि इति किञ्चिद्गृहीत्वा स्वयं तस्य सेवा । स्वप्नेनाऽयोग्यप्रतिसेवा सुमिणमित्युच्यते । द्रव्यक्षेत्रकालभावाश्रयेण प्रवृत्तस्यातिचारस्यान्यथा कथनं पलिकुञ्चनशब्देनोच्यते । कथं ? सचितसेवां कृत्वा अचित्तं सेवितमिति । अचित्तं सेवित्वा सचित्तं सेवितमिति वदति । तथा स्वावस्थाने कृतमध्वनि कृतमिति, सुभिक्षे कृतं दुर्भिक्षे कृतमिति, दिवसे कृतं रात्रौ कृतमिति, अकषायतया संपादितं तीव्रक्रोधादिना संपादितमिति । यथावत्कृतालोचनो यतिर्यावत्सूरिः प्रायश्चित्तं न प्रयच्छति तावत्स्वयमेवेदं मम प्रायश्चित्तं इति स्वयं गृह्णाति स स्वयं शोधकः । एवं मया स्वशुद्धिरनुष्ठितेति निवेदनं । एवमेतैर्दर्पादिभिः समापन्नोऽतिचारं 'उद्धरदि' कथयति । 'कमं' स्वकृतातिचारक्रमं । 'अभिदंतो' अनिराकुर्वन् ॥६१३ ॥ इयविभागयाए व ओघियाए व सल्लमुद्धरिय । सव्वगुण सोधिकंखी गुरूवएसं समायर || ६१४॥ 'इय' एवं पदविभागियाए व विशेषालोचनया वा । 'ओघियाए व सामान्यालोचनया वा । 'सल्लं' मायाशल्यं । 'उद्धरिय' उद्धृत्य । 'सव्वगुणसोधिकंखी' सर्वेषां गुणानां दर्शनज्ञानचारित्रतपसां शुद्धिमभिलषन् । 'गुरूari' गुरुणोपदिष्टं प्रायश्चित्तं । 'समादियादि' सम्यगादत्ते । रोषं दैन्यमश्रद्धानं च त्यक्त्वा ॥ ६१४॥ परिहार्यालोचनादोषानुक्त्वा गुरुसकाशे आलोचना निन्दना गुणवतीति वदति दूसरे साधुओंसे पहले ही किसी बहानेसे भिक्षाके लिए पहुँचना जिससे दूसरे न जान सकें । या अच्छा भोजन करके यह कहना कि मैंने नीरस भोजन किया है । मैं रोगीकी या आचार्यकी वैयावृत्य करूंगा, इस बहाने से कुछ वस्तु ग्रहण करके स्वयं उसका सेवन करना । १८. स्वप्नमें अयोग्य वस्तुके सेवनको सुमिण कहते हैं । १९. द्रव्य क्षेत्र काल और भावसे हुए अतिचारको अन्य रूपसे कहना पलिकुंचन शब्द से कहा जाता है । जैसे सचित्तका सेवन करके कहना कि मैंने अचित्तका सेवन किया है । अचित्तका सेवन करके कहना कि सचित्तका सेवन किया है । तथा अपने स्थान पर किये गये दोषको 'मार्गमें किया है' ऐसा कहना । सुभिक्षमें किये गये दोषको दुर्भिक्षमें किया कहना । दिनमें किये को रात में किया कहना । अकषाय पूर्वक कियेको कषायपूर्वक किया कहना । २०. विधिपूर्वक आलोचना करके आचार्यंके प्रायश्चित्त देने से पहले स्वयं ही 'यह मेरा प्रायश्चित्त है' इस प्रकार जो स्वयं प्रायश्चित्त ग्रहण करता है उसे स्वयं शोधक कहते हैं । उसे आचार्य से निवेदन करना चाहिए मैंने इस प्रकार स्वयं शुद्धि की है । इस प्रकार क्षपक अपने द्वारा किये गये दोषोंके क्रमका उल्लंघन न करके दर्पादिसे हुए अतिचारोंको गुरुसे कहता है ॥६१३ || गा० - इस प्रकार विशेष आलोचना अथवा सामान्य आलोचनाके द्वारा मायाशल्यको दूर करके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और तप इन सब गुणोंकी शुद्धिका इच्छुक क्षपक गुरुके द्वारा कहे प्रायश्चित्तको रोष, दीनता और अश्रद्धाको त्यागकर स्वीकार करता है ||६१४|| त्यागने योग्य आलोचना दोषोंको कहकर गुरुके समीपमें आलोचना और निन्दनाके गुण कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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