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________________ . विजयोदया टीका कदपावो वि मणुस्सो आलोयणणिंदओ गुरुसयासे । होदि अचिरेण लहुओ उरुहियभारोव्व भारवहो ।।६१५॥ 'कदपावो वि मणुस्सो' कृतपापोऽपि मनुष्यः समजिताशुभकर्मसंचयोऽपि मनुष्यः । अथवा पापस्याशुभकर्मणः कारणभूताऽसंयमादिरिह पापशब्देनोच्यते, तेनायमर्थः-कदपावोऽवि कृतासंयमादिकोऽपि । 'आलोयणणिदओ' कृतालोचनः कृतनिन्दितश्च । क्व ? 'गुरुसयासे' गुरुसमीपे । 'होदि' भवति । 'अचिरेण लहुओ' लघुतमः 'उरुहियभारोव्व' अवतारितभार इव । 'भारवहो' भारस्य वोढा ॥६१५॥ भावशुद्धयर्था आलोचना असत्यां भावशुद्धौ को वा दोष इत्याह सुबहुस्सुदा वि संता जे मूढा सीलसंजमगुणेसु । ण उर्वेति भावसुद्धिं ते दुक्खणिहेलणा होति ।।६१६।। 'सुबहुस्सुदा वि संता' सुष्ठु बहुश्रुता अपि सन्तः । 'जे मूढा' ये मूढाः । 'सीलसंजमगुणेसु' शीले क्षमादिके धर्म, संयमे, व्रतेषु गुणेषु ज्ञानदर्शनतपःसु च । 'भावसुद्धि' परिणामेन शुद्धि । 'ण उर्वति' नोपयान्ति ते । 'दुक्खणिहेलणा' दुःखैनिष्पीड्या । ‘होति' भवन्ति ॥६१६॥ . कृतायामालोचनायां गुरुणा किं कर्तव्यमित्यत आह आलोयणं सुणित्ता तिक्खुत्तो भिक्खुणो उवायेण । जदि उज्जुगोत्ति णिज्जइ जहाकदं पट्ठवेदव्वं ॥६१७॥ 'आलोयणं' आलोचनां । 'सुणित्ता' श्रुत्वा । 'तिक्खुत्तो' त्रिः पृष्ट्वा । 'भिक्खुणो' भिक्षोः । 'उपायेण' उपायेन । 'जदि उज्जुगोत्ति य' यदि ऋजुरयमिति । 'णज्जई' ज्ञायते । “वचनेन आचरणेन वा ज्ञायते प्राण ऋजुता । 'जहा' यथा । 'कदं' कृतं पापं सुज्झदिति शेषः शुद्धयति तथा 'पट्ठवेदव्वं' प्रायश्चित्तं दातव्यं । गा०-'कृतपाप' अर्थात् अशुभकर्मका संचय करनेवाला भी मनुष्य । अथवा पाप अर्थात् अशुभकर्मके कारणभूत असंयम आदिको यहाँ पापशब्दसे कहा है । तब यह अर्थ होता है-असंयम आदि करनेवाला भी मनुष्य गुरुके समीप आलोचना और निन्दा करके शीघ्र ही हलका हो जाता है जैसे बोझको उतारनेपर बोझा ढोनेवाला हलका हो जाता है॥६१५॥ __भावोंकी शुद्धिके लिए आलोचना की जाती है । भावशुद्धिके अभावमें दोष कहते हैं __ गा०-जो मूढ़ मुनि बहुत अच्छे वहुश्रुत विद्वान् होकर भी क्षमा आदि धर्ममें, संयममें, व्रतोंमें, ज्ञान दर्शन और तप गुणोंमें भावशुद्धि नहीं रखते वे दुःखोंसे पीड़ित होते हैं ।।८१६॥ आलोचना करनेपर गुरुको क्या करना चाहिए, यह कहते हैं गा०-आलोचना सुनकर गुरु भिक्षुसे तीन वार उपायसे पूछते हैं तुम्हारा अपराध क्या है मैं भूल गया या मैंने सुना नहीं। इत्यादि उपायसे गुरु तीन बार पूछते हैं। यदि 'वचन' कहनेके ढंगसे और आचरणसे जानते हैं कि यह सरल हृदय है तो जिस प्रकार किया पापशुद्ध हो १. ते तनुभवनेन वाचर-आ० । ५४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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