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________________ विजयोदया टीका ४२३ भिरन्तर्धानं. अग्निसेवा 'शीतापनोदनाथं प्रावरणग्रहणं वा, उद्वर्तनं, म्रक्षणं वा। उपकरणं विनश्यतीति तेन स्वकार्याकरणं यथा पिच्छविनाशभयादप्रमार्जनं इत्यादिकं । म्रक्षणं तैलादिना, कमण्डल्वादीनां प्रक्षालनं वा, वसतितृणादिभक्षणस्य भञ्जनादेर्वा ममतया निवारणं, बहूनां यतीनां प्रवेशनं मदीयं कुलं न सहते इति भाषणं, प्रवेशे कोपः. बहनां न दातव्यमिति निषेधनं, कुलस्यैव वैयावृत्यकरणं । निमित्ताधुपदेशश्च तत्र ममतया ग्रामे नगरे देशे वा अवस्थाननिषेधनं । यतीनां सम्बन्धिनां सुखेन सुखमात्मनो दुःखेन दुःखमित्यादिरतिचारः । पार्श्वस्थानां वन्दना, उपकरणादिदानं वा तदुल्लङ्घनासमर्थता । गुरुता ऋद्धित्यागासहता, ऋद्धिगौरवं, परिवारे कृतादरः । परकीयमात्मसात्करोति प्रियवचनेन उपकरणदानेन । अभिमतर सात्यागोऽनभिमतानादरश्च नितरां रसगौरवं । निकागभोजने, निकामशयनादी वा आसक्तिः । सातगौरवं अनात्मवशतया प्रवर्तितातिचारः । उन्मादेन, पित्तेन पिशाचादेशेन वा परवशता । अथवा ज्ञातिभिः परिगृहीतस्य बलात्कारेण गन्धमाल्यादिसेवा प्रत्याख्या तभोजनं, रात्रिभोजनं मुखवासतांवूलादिभक्षणं वा स्त्रीभिर्नपुंसकैर्वा वलादब्रह्मकरणं । चतुर्यु स्वाध्यायेषु आवश्यकेषु वा आलस्यं । उवधिशब्देन मायोच्यते प्रच्छन्नमनाचारे वृत्तिः । ज्ञात्वा दातृकुलं पूर्वमन्येभ्यः मुनियोंमें ममत्वभाव स्नेह है । उससे हुआ अतीचार स्नेह कहाता है । मेरे इस शरीरको शीत कष्ट देता है। इसलिए चटाई वगैरहसे शीतको रोकना, आग तापना, शीत दूर करनेके लिए कुछ प्रावरण ग्रहण करना, उबटन लगाना, तेलकी मालिश करना। उपकरण नष्ट हो जायेगा इसलिए उससे अपना कार्य न करना, जैसे पिच्छीके नाशके भयसे उससे प्रमार्जन न करना, कमंडलु आदिको धोना । वसतिके तृण आदि खानेको अथवा उसके टूटने आदिको ममत्व भावसे रोकना, मेरे कुलमें बहुत यतियोंका प्रवेश सह्य नहीं है ऐसा कहना, प्रवेश करने पर कोप करना, बहुत यतियोंका प्रवेश देनेका निषेध करना, अपने कुलकी ही वैयावत्य करना, निमित्त आदिका उपदेश देना. ममत्व होनेसे ग्राम नगर अथवा देशमें ठहरनेका निषेध न करना, सम्बन्धी यतियोंके सुखसे अपनेको सुखी और दुःखसे दुःखी मानना इत्यादि अतिचार हैं। पार्श्वस्थ आदि मुनियोंकी वन्दना करना, उन्हें उपकरण आदि देना, उनका उल्लंघन करने में असमर्थ होना, इत्यादि अतीचारोंकी आलो. चना करता है। १४. ऋद्धिके त्यागमें असमर्थ होना ऋद्धिगारव है। मुनि परिवारमें आदरभाव होनेसे प्रिय वचन और उपकरण दानके द्वारा दूसरोंका अपनाता है। इष्ट रसका त्याग न करना और अनिष्ट रसमें अनादर होना रसगारव है । अति भोजन अथवा अतिशयनमें आसक्ति सात गौरव है। ये गारव सम्बन्धी अतिचार हैं। १५. अपने वशमें स्वयं न होनेसे अतिचार होते हैं। उन्मादसे, पित्तके प्रकोपसे अथवा पिशाच आदिके कारण परवशता होती है । अथवा जातिके लोगोंके द्वारा बलपूर्वक पकड़कर गन्ध माल्य आदिका सेवन, त्यागी हुई वस्तुका भोजन, रात्रि भोजन, मुखवास, ताम्बूल आदिका भक्षण कराया गया है। स्त्रियों अथवा नपुंसकोंके द्वारा बलपूर्वक अब्रह्म सेवन कराया गया हो। १६. चार प्रकारको स्वाध्याय अथवा आवश्यकोंमें आलस्य किया हो। १७. उपधि शब्दसे माया कही है अर्थात् छिपकर अनाचार करना। दाताका घर जानकर १. ग्रीष्मातफ्नो-आ० मु०। २. मतस्य ग्रा-आ० । भो-अ० आ० । ३, रसत्या-अ० आ० । ४. ख्यान Jain Education International For Private & Personal Use Only . www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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