SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 574
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विजयोदय टीका ५०७ 'परलोगम्मि वि दोसा' परभवेऽपि दोषास्त एव अप्रत्ययादय एव भवन्त्यलोकवादिनः । यत्नेनापि परिहरतः । किं ? ' मोसादिगे दोसे' मृषादिकान्दोषान् । मृषा आदिर्येषां स्तेयाब्रह्मपरिग्रहाणां ते मृषादयः । अद्गुणसं विज्ञानो बहुव्रीहिरत्र ग्राह्यः । स्तेयादिदोषान्परिहरतोऽपीत्यर्थः ॥ ८४४ ॥ भवतु नाम अप्रत्ययत्वादिका मृषावादस्य दोषाः कर्कशवचनादिना परभवे इह वाथ के दोषा इत्यत्रा चष्टे दोसा जे होंति अलियवयणस्स । seite परलो कक्कसवदणादण वि दोसा ते चेव णादव्वा ||८४५ || 'इहलोगिग परलोगिग दोसा' अस्मिञ्जन्मनि परत्र च ये दोषा भवन्ति अलीकवादिनः । कर्कशवचनादीनामपि त एव दोषा इति ज्ञातव्याः ॥ ८४५ ॥ उपसंहारगाथा देसि दोसाणं मुक्की होदि अलिआदिवचिदोसे | परिहरमाणो साधू तव्विवरीदे य लभदि गुणे || ८४६ || एतेभ्यो दोषेभ्यो मुक्तो भवति व्यलीकादिवचनदोषान्यः परिहरति साधुः लभते 'नापि ? दोषप्रतिपक्षभूतान्प्रत्ययितत्वादिगुणान् । प्रत्ययः कीर्तिः, असंक्लेश, रतिः, कलहाभावः, निर्भयतादिकश्च । 'सच्चं' ||८४६॥ व्याख्याय सत्यव्रतं तृतीयव्रतं निगदति- माकुणसु तुमं बुद्धि बहुमप्पं वा परादियं घेत्तुं । दंतंतरसोधणयं कलिंदमेत पि अविदिण्णं ||८४७|| गा० - असत्य, चोरी, कुशील और परिग्रहरूप दोषोंका प्रयत्नपूर्वक त्याग करनेवाले भी असत्यवादीके परलोकमें भी अविश्वास आदि दोष होते हैं । अर्थात् असत्यवादी मरकर भी इन दोषों का भागी होता है ||८४४|| असत्य भाषणसे अविश्वास आदि दोष भले ही होते हों, किन्तु कर्कश आदि वचन बोलने से इस भव या परभवमें क्या हानि है ? इसका उत्तर देते हैं गा० - इस लोक और परलोकमें असत्यवादी जिन दोषोंका पात्र होता है, कर्कश आदि वचन बोलनेवाला भी उन्हीं दोषोंका पात्र होता है || ८४५ || गा० - जो साधु असत्य भाषण आदि दोषोंको दूर कर देता है वह ऊपर कहे दोषोंसे मुक्त होता है— उसमें वे दोष नहीं होते । तथा उन दोषोंसे विपरीत विश्वास, यश, असंक्लेश, रति. कलहका अभाव, निर्भयता आदि गुणोंका भाजन होता है ||८४६ || Jain Education International सत्य महाव्रतका कथन समाप्त हुआ । सत्य व्रतका कथन करके तीसरे व्रतका कथन करते हैं १. ते तद्विपरीतेनेति नापि -आ० मु० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy