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________________ १५२ भगवती आराधना स्वचेतसोपि ऋजुतापादनमतिदुष्करं किमंग पुनः परस्येत्यसंकल्पः सहनं । पुरस्कृतचारित्र विनयस्य ईर्यादिसमितयो दुष्कराः । जीवनिकायाकुले जगति कियंतः परिहतु शक्यंते ? निपुणतरं प्रतिपदन्यासं जीवावलोकने तत्परिहृतौ च कियद्गन्तुं शक्यते ? तथा प्रवर्तमानं बाधन्तेतरामातपादयः । नवकोटिपरिशुद्धा भिक्षा क्व लप्स्यते, खलेषु कृतज्ञता वेति मनसोऽप्यप्रणिधानं चारित्रविनयः । तपोविनयमुपगतस्यानशनादितपोऽनुष्ठानातिशयस्य मम स्वल्पमसंयमं अप्रासुकोदकपानेन, अशुद्धभिक्षाग्रहणेन वा जातं तप एवोन्मूलयतीति असंकल्पं सहनं । असकृदभ्युत्यानं, अनुगमनं प्रेषणकरणं, उपकरणशोधनादिकं वा कः कतु शक्नोति प्रतिदिनमित्यनभिसंधिरुपचार विनयसहनं । 'सढ्ढा य' श्रद्धा च । क्व तपसि । तपसा संपाद्यमुपकारमात्मनोऽवलोक्य बुद्धया तपो हि प्रत्यग्रं कर्म संवृणोति, चिराजितानां कर्मणां निर्जरामापादयति, इंद्रचक्रलांछनादिसंपदोऽप्यानयति । समीचीनस्य तपसोऽलाभादेव जननमरणावर्तसहनं, असुखाकुले भवांभोधी पर्यटनं ममासीद् भविष्यति च तथैव इति तपस्यनुरागः कार्यः । 'आवास गाणं' आवश्यकानां । ण वसो अवसो अवसस्स कम्ममावासगं इति व्युत्पत्तावपि सामायिकादिष्वेवायं शब्दो वर्तते । व्याधिदौर्बल्यादिना व्याकुलो भण्यते अवशः परवश इति यावत् । तेनापि कर्तव्यं कर्मेति । यथा आशु गच्छतीत्यश्व इति व्युत्पत्तावपि न व्याघ्रादौ वर्तते अश्वशब्दोऽपि तु प्रसिद्धिवशात् तुरग एव । एवमिहापि अवश्यं यत्किंचन कर्म इतस्ततः परावृत्तिराक्रंदनं, पूत्करणं वा न तद्भण्यते अथवा आवासप्रकारका कोप न करना अथवा उससे होने वाले श्रमसे संक्लेश भाव न करना, उसे सहना । दर्शन विनय करते हुए 'सन्मार्गसे गिरते हुएको स्थिर करना बड़ा कठिन है अपने चित्तको भी सरल करना कठिन है फिर दूसरेका तो कहना क्या । इस प्रकार संकल्प न करना उसे सहना । चारित्र विनय करने वालेको, 'ईर्या आदि समितियाँ दुष्कर हैं, यह जगत जीवोंसे भरा है कहाँ तक उन्हें बचाया जा सकता है ? अत्यन्त कुशलता पूर्वक पदको रखते हुए जीवोंको देखकर उन्हें बचाते हुए चलने में कौन समर्थ है ? इस प्रकारसे चलने पर आतप आदिकी अत्यन्त वाधा होती है । दुर्जनों कृतज्ञताकी तरह नौ कोटिसे शुद्ध भिक्षा कहाँ मिलती है' इस प्रकार मनमें न सोचना चारित्र विनय है । तप विनय करने वालेके 'अनशन आदि तपके अनुष्ठानमें लगे मेरे अप्रासुक जल पीने अथवा अशुद्ध भिक्षाके ग्रहणसे हुआ थोड़ा सा असंयम तपसे नष्ट हो जाता है' इस प्रकारका संकल्प न करना सहना है । 'बार-बार उठना, पीछे जाना, आज्ञा पालना, उपकरण आदि शुद्धि, कौन प्रतिदिन कर सकता है' इस प्रकारका संकल्प न करना उपचार विनय सहन है । तप नवीन कर्मोंका आना रोकता है । चिरकालसे संचित कर्मोंकी निर्जरा करता है । इन्द्र, • चक्रवर्ती आदिको संपदा भी लाता है । सम्यक् तपके अलाभसे ही जन्म मरणके चक्र और दुःखसे भरे संसार समुद्र में भ्रमण मुझे करना पड़ा है तथा करना पड़ेगा, इस प्रकार तपके द्वारा होने वाले उपकारोंको अपने में देखकर तपमें अनुराग करना चाहिये । न वश, अवश और अवशका कर्म आवश्यक है । ऐसी व्युत्पत्ति होने पर भी सामायिक आदिको ही आवश्यक कहते हैं । व्याधि, दुर्बलता आदिसे पीड़ितको भी अवश या परवश कहते हैं, और उसके द्वारा किया गया कर्म आवश्यक है । किन्तु जैसे जो 'आशु' शीघ्र चलता है वह अश्व (घोड़ा) हैं ऐसी व्युत्पत्ति होने पर भी व्याघ्र आदिको अश्व नहीं कहते, बल्कि प्रसिद्धिवश घोड़ेको हो अश्व कहते हैं । वैसे ही यहाँ भी जो अवश्य कर्म हैं - यहाँ-वहाँ घूमना, रोना, चिल्लाना 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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