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________________ विजयोदया टीका १५१ अनशनावमोदर्यवृत्तिपरिसंख्यानेषु क्षुत्तृड्जनितवेदनया अव्याकुलता, कथमिदमुद्वहामीति वा अदीनता, प्रणिधानं. अदिम पिबामीति वा भक्तकथापरित्यागः, तत्कथनानादरः इतस्ततश्चापरिवर्तन क्षुधा तषा वा बाधितोऽस्मीति एवं वचनं सहनं, अथवा भोजनदिवसे यांचाया अकरणं, श्रांतोस्म्युपवासेन रूक्षं भोक्तू न शक्नोमि क्षीरघृतशर्करादिकं दातव्यमिति बचनेन यांचाया अकरणं, मनसा वा यदीदं लभ्यते भद्रं स्यात् इति वाऽप्रार्थना, कायसंज्ञया वा क्षीरादीनामप्रदर्शनं क्षीरादिदाने वाऽप्रहसितायमानमुखता, शीतरूक्षाद्याहारदाने वा अकुपिताननता, अलाभेऽपि लाभादलाभो मे परं तपोवृद्धिरिति संकल्पेनालाभपरीषहसहनं वा, अथवा लौकिकानां धर्मस्थानां वा सत्कारपुरस्काराकरणे तपसि महति वर्तमानोऽप्यहमेतेषां न पूजितः इति कोपसंक्लेशाकरणं । सत्कारपुरस्कारपरीषहसहनं वा । रसपरित्यागं कृतवतः रसवदाहारकथादर्शनोपजायमानतदादरनिवारणं रसपरित्यागजातशरीरसंतापक्षमा वा सहनं । आतापयोगधारिणो धर्माद्युपनिपाते असंक्लिष्टचित्तता तत्प्रतीकारवस्तुषु अनादरश्च सहनं । जनविविक्तदेशे वसतः पिशाचव्यालमृगाद्यवलोकनादिकृतभोतिव्युदासोऽरतिविजयश्च सहनं । प्रायश्चित्तमाचरतोऽपि महदिदं दत्तं गुरुणा बलाबलं ममानिरूप्येति कोपाकरणं, प्रायश्चित्तकरणजनितश्रमण वा असंक्लिष्टतासहनं । ज्ञानविनये वर्तमानस्य क्षेत्रकालशुद्धिकरण मामैव नियोजयति इति कोपनिरासो वा, तद्गतश्रमे असंक्लेशश्च सहनं । दर्शनविनये अभ्युद्यतस्य सन्मार्गात्प्रच्यवमानस्य स्थिरीकरणं महानायासः, संयमके बिना तप करता है वह निरर्थक करता है।' 'सम्म' का अर्थ सम्यक् है अर्थात् संक्लेश और दीनताके बिना भूख आदिका सहन करना। अनशन, अवमौदर्य और वृत्ति परिसंख्यान नामक तपोंमें भूख प्याससे होने वाली वेदनासे व्याकुल न होना कि कैसे इसे सहूँगा। अथवा अदीनता, खान-पानमें मनको न लगाना, मैं खाता हूँ पीता हूँ इस रूपमें भोजनकी कथा न करना, उसकी कथामें आदर भाव न रखना, इधर उधर नहीं घूमना, मैं भूख या प्याससे पीड़ित हूँ इस प्रकारके वचनको सहन करना, अथवा भोजनके दिन माँगना नहीं, मैं उपवासमें कमजोर हो गया हुँ, रूखा भोजन नहीं कर सकता, दूध घी शक्कर आदि देना चाहिये । इस प्रकारके वचनसे याचना नहीं करना अथवा यदि अमुक वस्तु प्राप्त हो तो उत्तम है ऐसी मनसे प्रार्थना न करना अथवा शरीरके संकेतसे दूध आदिको न दिखलाना, अथवा दाता दूध आदि दे तो मुखको प्रफुल्लित न करना और ठंडा रूखा आहारादि दे तो मुख पर क्रोध न लाना अथवा भोजन न मिलने पर लाभसे अलाभमें मेरे तपकी परम वृद्धि है ऐसा संकल्प करके अलाभ परीषहको सहना, अथवा लौकिक या धर्मात्मा पुरुषोंके द्वारा आदर सम्मान न करने पर 'मैं महान् तपस्वी हूँ फिर भी इन्होंने मेरी पूजा नहीं की' इस प्रकारका कोप और संक्लेश न करना, अथवा सत्कार पुरस्कार परीषहको सहना । यदि रसका त्याग किया है तो रस यक्त आहारकी कथा अथवा रस यक्त आहारको देखनेसे उसके प्रति उत्पन्न हुए आदर भावका निवारण करना, रसको त्यागनेसे शरीरमें उत्पन्न हुए संतापको सहना । यदि आताप योग धारण किया है तो धूप आदि आने पर चित्तमें संक्लेश न करना, और उसका प्रतीकार करने वाली वस्तुओंमें आदर भाव न करना, मनुष्योंसे शून्य देशमें निवास करते हुए पिशाच, सर्प, मृग आदिको देखने आदिसे उत्पन्न हुए भयको रोकना तथा अरति परीषहको जीतना। प्रायश्चित करते हुए भी 'गुरुने मुझे मेरा बलाबल न देखकर महान् प्रायश्चित दे दिया' इस प्रकार कोप न करना अथवा प्रायश्चित करनेसे उत्पन्न हुए श्रमसे मनमें संक्लेश न करना । ज्ञान विनय करते समय क्षेत्र शुद्धि काल शुद्धि करने में मुझे ही लगाते हैं' इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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