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________________ ७५० भगवतो आराधना दसणणाणचरित्तं तवं च विरियं समाधिजोगं च । तिविहेणुवसंपज्जिय सव्वुवरिल्लं कम कुणइ ॥१६९२।। 'दसणणाणचरितं तवं विरियं समाधिजोगं च' तत्त्वश्रद्धानं तत्त्वावगम, वीतरागतां, अशनत्यागक्रियां, स्वशक्त्याऽनिगहनं चित्तकाग्रयोग । 'तिविधेणवसंपज्जिय' मनोवाक्कायः प्रतिपद्य । 'सब्ववरिल्लं' सर्वेभ्यः पूर्वप्रवृत्तदर्शनादिपरिणामेम्योऽतिशयितं कम 'कुणदि' क्रमं दर्शनादिपदन्यासं करोति ॥१६९२॥ शुभध्यानमारुरुक्षतः परिकरमाचष्टे जिदरागो जिददोसो जिदिदिओ जिदभओ जिदकसाओ । अरदिरदिमोहमहणो ज्झाणोवगओ सदा होहि ॥१६९३।। "जिदरागों' स्वतो व्यतिरिक्तेषु जीवाजीवद्रव्येषु तेषां पर्यायेषु रूपरसगंधस्पर्शशब्दाख्येषु विचित्रभेदेषु तत्संस्थानादिषु च यो रागः स जितो येन सोऽभिधीयते । तथा मनोज्ञेषु याप्रीतिः स दोष उच्यते स च जितो येन स जितदोषः । "णेहुत्तपिदगत्तस्स रेणुगो लग्गदे जहा अंगे । तह रागदोसणेहोल्लिदस्स 'कम्मासवो होदि ॥" [मूलाचार २३६] इति । जिनवचनाधिगमादुःखभीरुयंतिः सर्वदुःखानां मूलकारणभूतौ रागद्वषाविति मनसा विनिश्चित्य गा०-टी०-दर्शन अर्थात् तत्त्वश्रद्धान, तत्त्वज्ञान और चारित्र अर्थात् वीतरागता, तप अर्थात् भोजनका त्याग, वीर्य अर्थात् अपनी शक्तिको न छिपाना, तथा समाधियोग अर्थात् चित्रकी एकाग्रता, इन सबको मन वचन कायसे प्राप्त करके क्षपक पूर्वके दर्शन आदिसे विशिष्ट दर्शन आदिमें पग धरता है ॥१६९२॥ विशेषार्थ-मैत्री आदि भावनाके बलसे व्यवहार मोक्षमार्गको प्राप्त करके क्षपक परमार्थ मुक्तिमार्गपर चलनेका प्रयत्न करता है यह इस गाथाके द्वारा कहा है। यह शुभतम ध्यानके लिये प्रयत्नका प्रारम्भ है ।।१६९२॥ . आगे शुभध्यानकी सामग्री कहते हैं गा०-जो जितराग, जितद्वेष, जितेन्द्रिय, जितभय, जितकषाय और अरति रति तथा मोहका मथन करता है वह सदा ध्यानमें लीन रहता है। टो-अपनेसे भिन्न जीव अजीव द्रव्योंमें, रूप रस गन्ध स्पर्श और शब्द रूप उनकी पर्यायोंमें तथा अनेक भेदवाले उनके आकारादिमें जो रागको जीतता है उसे जितराग कहते हैं। तथा अमनोज्ञ वस्तुओंमें प्रीतिका अभाव दोष है। जिसने उसे जीत लिया वह जितदोष है। 'जैसे जिसका शरीर तेलसे लिप्त होता है उसके शरीरमें धूल लगती है। उसी प्रकार जो राग द्वेष और स्नेहसे लिप्त होता है उसके कर्मोंका आस्रव होता है।' इस जिनागमको जानकर दुःखसे भीत यति 'सब दुःखोंका मूल कारण रागद्वेष है ऐसा १. कम्मं मुणेयव्वं -मूला० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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