SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 594
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विजयोदया टीका ५२७ महिलावेसविलंवी जणीचं कुणइ कम्मयं परिसो । तह विण पूरइ इच्छा तं से परदारगमणेफलं ॥९२६॥ 'महिलावेसविलंबी' स्त्रीवेषविलम्बनापरः पुरुषो यन्नीचं कर्म करोति । तथापि न पूर्यते इच्छा तत्तस्य पंढत्वं परदारगमनफलम् ।।९२६॥ भज्जा भगिणी मादा सुदा य बहुएसु भवसयसहस्सेसु । अयसायासकरीओ होति विसीला य णिच्चं से ॥९२७।। 'भज्जा भगिणी मादा' भार्या भगिनी माता सुता च बहुषु भवसहस्रेषु अयशः आयासं कुर्वन्त्यो भवन्ति नित्यं विशीलास्सदा तस्य ॥९२७॥ होइ सयं पि विसीलो पुरिसो अदिदुब्भगो परभवेसु । पावइ वघबंधादि कलहं णिच्चं अदोसो वि ॥९२८।। होदि सयं पि' भवति स्वयमपि विशीलः, पुरुषो दुर्भगश्च प्राप्नोति नित्यं च वधबन्धं आत्मा सकलहं च अदोषोऽपि ॥९२८॥ इहलोए वि महल्लं दोसं कामस्स वसगदो पत्तो । कालगदो वि य पच्छा कडारपिंगो गदो णिरयं ॥९२९॥ 'इहलोए वि महल्लं कडारपिंगो' इहलोकेऽपि महान्तं दोषं प्राप्तः कामवशङ्गतः। कालं कृत्वा पश्चान्नरके प्रविष्टः कडारपिङ्गः । वाच्यमत्राख्यानकम् ॥९२९॥ . एदे सव्वे दोसा ण होंति पुरिसस्स बंभचारिस्स । तविवरीया य गुणा हवंति बहुगा विरागिस्स ॥९३०॥ विशेषार्थ-पं० आशाधरजीने अपनी टीकामें 'अन्ये' कहकर इसका दूसरा अर्थ इस प्रकार लिखा है-जो पुरुष उसे न चाहनेवाली नारीको बलपूर्वक यथेच्छ भोगता है और भोगते हुए भी सुख नहीं पाता, यह उसके परस्त्री भोगका फल है जो कष्टरूप है ॥९२५।। गा-स्त्रीका वेश धारण करनेवाला जो पुरुष (नपुंसक) नीच कर्म करता है, और यहाँ वहाँ काम क्रीड़ा करके भी सन्तुष्ट नहीं होता, उसका यह नपुंसकपना परस्त्रीगमनका फल है ।।९२६।। गा-परस्त्रीगामीकी भार्या, बहन, माता, पुत्री, लाखों जन्मोंमें अपयश और दुःख देनेवाली सदा व्यभिचारिणी होती हैं ।।९२७।। गा०-परस्त्रीगामी स्वयं भी परभवोंमें (आगामी जन्मोंमें) दुराचारी और अभागा होता है और विना अपराधके भी कलहपूर्वक नित्य बध, बन्ध आदिका कष्ट उठाता है ॥९२८॥ गा०-कामके वशीभूत होकर कडारपिंग इसी जन्ममें महान् दोषका भागी हुआ। पीछे मरकर नरकमें गया ॥९२९|| १. भवसहस्सेसु-आ० । २. परेषु-अ० आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy