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________________ ७३० भगवती आराधना गतासद्वद्यकर्मणः । "णिवुदि' निवृति । 'हत्थोहि अतीरंतं भंतुं' हस्तिभिर्महाबलः कर्तुमशक्यं यद्भञ्जनं । 'किध ससगो भंजीहि' कथं स्वल्पप्राणो भक्ष्यति शशकः ॥१६११॥ ते अप्पणो वि देवा कम्मोदयपच्चयं मरणदुक्खं । वारेदुण समत्था घणिदं पि विकुव्वमाणा वि ॥१६१२॥ 'ते देवा अप्पणो वि कम्मोदयपच्चयं मरणदुक्खं' ते देवाः सेन्द्रकाः आत्मनोऽपि कर्मोदयहेतुकं मरणदुःखं 'वारे दूं' ण समत्था' निवारयितुन समर्थाः। 'धणिवंवि विकुम्वमाणा' नितरां विक्रियां कुर्वन्तोऽपि ॥१६१२।। "उज्झंति जत्थ हत्थी महाबलपरक्कमा महाकाया। सुत्ते तम्मि वहंते ससया ऊढेल्लया चेव ।।१६१३।। 'उज्झति' यस्मिन् स्रोतसि हस्तिनः ऊह्यंते महाबलपराक्रमा महाकायाः । तस्मिन् स्रोतसि वहन्ति शशका गता एव ॥१६१३॥ किह पुण अण्णो मुच्चहिदि सगेण उदयागदेण कम्मेण । तेलोक्केण वि कम्म अवारणिज्जं खु समुवेदं ॥१६१४॥ 'किह पुण अण्णो मुच्चहिवि' कथं पुनरन्यो मोक्ष्यते, स्वेन कर्मणा उदयागतेन । त्रैलोक्येनापि कर्मानिवार्यमेव समुपगतं ॥१६१४॥ कह ठाइ सुक्कपत्तं वारण पडतयम्मि मेरुम्मि । देवे वि य विहेडयदो कम्मस्स तुमम्मि का सण्णा ॥१६१५॥ 'कह गइ सुक्कपत्त' कथं तिष्ठेत् शुष्कपत्रं । वातेन पतति मेरौ । अणिमाद्यष्टगुणसंपन्नान्देवानपि कुत्सीकुर्वतः कर्मणो भवत्यल्पबले का संज्ञा ॥१६१५॥ गा०-वे देव कर्मके उदयके कारण होनेवाले अपने भी मरणके दुःखको दूर करने में समर्थ नहीं है यद्यपि वे दिव्यशक्तिसे सम्पन्न होनेसे अनेक प्रकारकी विक्रिया करनेमें समर्थ होते हैं ॥१६१२॥ गा०—जिस प्रवाहमें महाबली, महापराक्रमी और विशाल शरीरवाले हाथी बह जाते हैं उस प्रवाहमें बेचारे खरगोश स्वयं ही बह जाते हैं ।।१६१३॥ गा०--जब देव भी अपने उदयागत कर्मको ढालने में असमर्थ है तब अन्य साधारण प्राणी अपने उदयागत कर्मसे कैसे छूट सकता है ? उदयागत कर्मको तीनों लोक भी नहीं टाल सकते ॥१६१४॥ गा०—जिस वायुसे मेरुपर्वतका पतन हो सकता है उसके सामने सूखा पत्ता कैसे ठहर सकता है ? इसी प्रकार जो कर्म अणिमा आदि आठ गुणोंसे सम्पन्न देवोंकी भी दुर्गति कर देता है उसके सामने तुम्हारे जैसे मरणोन्मुख मनुष्यकी क्या गिनती है ॥१६१५॥ १. वुभंति-मूलारा । २. रुढिल्लिया अ० आ० ज० । बूढेल्लया मूलारा० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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