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________________ विजयोदया टीका ७२९ 'मोक्खाभिलासिणो' निरवशेषकर्मापायाभिलाषिणः । 'संजदस्स' प्राणसंयमवतः । 'णिधणगमणं पि होदि वरं' मरणमपि वरं । 'ण य' नव वरं युक्तं । 'वंदणाणिमित्तं' वेदनोपशमार्थ । 'अप्पासुगसेवणं कादु" अयोग्यद्रव्यसेवनं कत्तुम् ।।१६०८॥ णिधणगमणं एयभवे णासो पुणो पुरिल्लजम्मेसु । णासं असंजमो पुण कुणइ भवसएसु बहुगेसु ॥१६०९।। "णिधणगमणं एपभवे' निधनगमन कभवे । 'णासो' नाशः । 'ण पुणो' न पुनर्नाशः । 'पुरिल्लजम्मेसु' भाविषु जन्मसु । 'असंजमो पुण' असंयमः पुनः । 'भवसएसु' जन्मशतेषु । 'बहुएसु' बहुषु । 'णासं कुणई' नाशं करोति । वेदना हि न संयतमनुयाति रत्नत्रयभावनोद्यतं । सा हि असातं मन्दं करोति । असंयमः पुन असद्वेद्यं प्रकष्टानुभवं करोति । उक्तं च-'दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यसद्वेद्यस्येति' [त० सू० ६।११] ।।१६०९॥ ण करेंति णिन्वुइं इच्छया वि देवा सइंदिया सव्वे । पुरिसस्स पावकम्मे अणक्कमग्गे उदिग्णम्मि ॥१६१०॥ 'गं करेंति णिन्वुई" न कुर्वन्ति निवृति । 'पुरिसस्स' पुरुषस्य । 'सईदिया देवा सम्धे इच्छया वि' सेन्द्रकाः सर्वे देवा इच्छन्तोऽपि । 'पावकम्म' पावकर्मणि । 'अणुक्कमर्ग' अनुक्रमके । 'उदिण्णम्मि' उदयमुपगते ।।१६१०॥ किह पुण अण्णो काहिदि उदिण्णकम्मस्स णिन्वदिं पुरिसो । हत्थीहिं अतीरंतं भंतुं भंजिहिदि किह ससओ ॥१६११।। 'किह पुण' कथं पुनः । 'अण्णो काहिदि पुरिसो' अन्यः करिष्यति पुरुषः । 'उदिण्णकम्मस्स' उदया गा-समस्त कर्मबन्धनके विनाशरूप मोक्षके अभिलाषी संयमीका मरण होना भी श्रेष्ठ है। किन्तु वेदनाकी शान्तिके लिये अप्रासुक अयोग्य द्रव्यका सेवन करना श्रेष्ठ नहीं है ।।१६०८।। गा०-टी.-मरण होना तो एक भवका ही विनाश है भावि जन्मोंका नाश नहीं है किन्तु असंयम तो सैकड़ों जन्मोंको नष्ट कर देता है । जो संयमी रत्नत्रयकी भावनामें तत्पर रहते हैं वेदना उनका पीछा नहीं करती। क्योंकि रत्नत्रयको भावना असाताके उदयको मन्द करती है । और असंयम असातावेदनीयके अनुभागको बढ़ाता है। कहा भी है दुःख, शोक, पश्चात्ताप, रुदन, वध और हृदयको व्याकुल करनेवाला रुदन स्वयं करनेसे, दूसरोंमें करनेसे या दोनोमें करनेसे अमातावंदनीयका आस्रव होता है ॥१६०९॥ ___ गा०–पुरुषके पापकर्मके अनुक्रमसे उदय आनेपर इन्द्रसहित सब देव इच्छा करनेपर भी सुखी नही कर सकते ॥१६१०॥ गा०-तब असातानेदनीय कर्मका उदय आनेपर अन्य साधारण पुरुष क्या कर सकते हैं ? जिसे महाबलशाली हाथी भी तोड़ने में असमर्थ है क्या उसे बेचारा कमजोर खरगोश तोड़ सकता है ॥१६११॥ १. अनुक्रमेण -आ० । अणवक्कमगे निष्प्रतीकारे -मूलारा० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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