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________________ ७२८ भगवती आराधना पुरिसस्स पावकम्मोदएण ण करंति वेदणोवसमं । सुट्टु पत्ताणि वि ओसघाणि अदिवीरियाणी वि ।।१६०५ ।। 'पुरिसस्स पावकम्मोदयम्मि' पुरुषस्य पापकर्मोदये 'न करेंति' न कुर्वन्ति । 'वेदणोवसमं' वेदनोपशमं । 'सुठु पउत्ताणि वि' सुष्ठु प्रयुक्तान्यपि । 'ओसधाणि वि' औषधानि 'अदिवीरियाणि' अतिवीर्याण्यपि ॥। १६०५ ॥ रायादिकुडुंबीणं अदयाए असंजमं करंताणं । घणंतरी विकादु ण समत्थो वेदणोवसमं || १६०६॥ 'रायादिकुडु बीणं' राजादीनां कुटुम्बीनां अनेक द्रव्यसंपत्परिचारकसंपत्प्रख्यातानां । 'अदयाए असंजमं 'वेदणोवसमं' करेंताणं' दयामन्तरेणासंयमं कुर्वतां । ' घण्णंतरी वि कार्टु' धन्वंतरिरपि कर्तुं असमर्थः । वेदनाया उपशमं । वैद्यसंपत्ता धन्वन्तरे ग्रहणेन सूचिता || १६०६ ॥ किं पुण जीवणिकाये दयंतया जादणेण लद्धेहिं । फासुगदव्वेंहिं करेंति साहुणो वेदणोवसमं || १६०७।। ' कि पुर्ण' किं पुनः । 'जीवणिकाए' जीवनिकायान् । 'दयंतगा' दयमानाः । 'जादणेण लद्बहि' याञ्चया लब्धः । 'फासुगदव्वेहि' प्रासुकद्रव्यैः । 'करेज्ज' कुर्यात् । 'साहुणो वेदणोवसमं' साधोर्वेदनोपशमं । परिचारकसंपदभावो दश्यंते 'जोवणिकाए दयंतगा' इत्यनेन । यथा व्याघे रुपशमो भवति तथा कुर्वति परिचारकाः । अमी पुनर्यतयः षड्जीव निकायबाधापरिहारोद्यताः स्वसंयम विनाशभीरवो । 'जायणेण लद्ध हि' इत्यनेन द्रव्यसंपदभाव आख्यायते || १६०७॥ Jain Education International मोक्खाभिलासिणो संजदस्स णिधणगमणं पि होदि वरं । णय वेदणामित्तं अप्पासुगसेवणं काढुं ।। १६०८।। गा० - जब पुरुषके पापकर्मका उदय होता है तो अच्छी तरहसे प्रयुक्त और अतिशक्तिशाली भी औषधियाँ वेदनाको शान्त नहीं करतीं ॥। १६०५ || गा० - टी० - राजा आदि कुटुम्बी जिनके पास अनेक प्रकारकी धन-सम्पदा और सेवा करनेवाले दास-दासियोंकी प्रचुरता होती है, किन्तु जो दयाहीन होकर असंयमी जीवन बिताते हैं, उनकी वेदनाको शान्त करनेके लिये धन्वन्तरि भी समर्थ नहीं है । धन्वन्तरिपदसे वैद्यरूपी सम्पदाको सूचित किया है । अर्थात् धन्वन्तरि जैसा वैद्य भी उनकी वेदनाको दूर नहीं कर सकता ॥१६०६ ॥ गा० - टी० - तब जीवमात्रपर दया करनेवाले याचनासे प्राप्त प्रासुक द्रव्योंसे साधुकी वेदनाका उपशम कहाँ तक कर सकते हैं ? अर्थात् परिचारक साधु जहाँ तक शक्य होता है व्याधिको शान्त करनेका प्रयत्न करते हैं क्योंकि उनके पास परिचारक रूप सम्पदा - दासदासी तो हैं नहीं और यतिगण छह कायके जीवोंको बाधा न पहुँचे इसके लिये सदा तत्पर रहते हैं तथा अपने संयम विनाशसे भी भयभीत रहते हैं। साथ 'याचनासे प्राप्त' कहने से उनके पास धनसम्पदाका भी अभाव कहा है ।। १६०७॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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