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________________ ५२२ भगवती आराधना वयणपडिवत्तिकुसलत्तणं पि णासइ णरस्स कामिस्स । सत्थप्पहव्व तिक्खा वि मदी मंदा तहा हवदि ।।९०६।। 'वयणपडियत्तकुसलत्तणं पि' वचने प्रतिपत्तौ च कुशलतापि नश्यति कामिनो नरस्य । शास्त्र प्रहता शास्त्रे घटिता अतितीक्ष्णापि मति कुंठा भवति ॥९०६॥ होदि सचक्खू वि अचक्खु व वधिरो वा वि होइ सुणमाणो । दुट्ठकरेणुपसत्तो वणहत्थी चेव संमूढो ।।९०७।। 'होदि सचक्खू वि अचक्खु व' चक्षुष्मानपि अचक्षुरिव भवति । परं समीपस्थमपि यतो न पश्यति । 'बहिरो वा वि होदि' बधिर इव भवति । 'सुणमाणों' शृण्वन्नपि अव्यक्तश्रवणात । 'दुदु करेणुपसत्तो' दुष्टकरिणीप्रसक्तः । 'वणहत्थो चेव' वनहस्तीव । 'संमूढः ॥९०७॥ सलिलणिवढोव्व णरो बुझंतो विगयचेयणो होदि । दक्खो वि होइ मंदो विसयपिसाओवहदचित्तो ।।९०८।। 'सलिलणिवुढो बुझंतो गरोव्व' सलिलनिमग्नः प्रवाहणोह्यमानो नरो यथा । 'विगयचेयणो' विगतचैतन्यो भवति । 'दक्खो वि होदि मंदो' दक्षोऽपि सर्वकार्येषु प्रवीणोऽपि जडो भवति । 'विसयपिसाओवहदचित्तो' विषयपिशाचोपहतचित्तः विषया रूपादयश्चेतोविभ्रमहेतुत्वात्पिशाचा इवेति विषयाः पिशाचा इत्युक्ताः ॥९०८॥ बारसवासाणि वि संवसित्तु कामादुरों ण णासीय । पादंगुट्ठमसंतं गणियाए गोरसंदीवो ॥९०९।। 'बारसवासाणि' द्वादशवर्षमात्रं सहोषित्वापि । 'कामादुरोपि' कामातुरोऽपि । न ज्ञातवान्गोरसंदीपः । कि ? गणिकायाः पादांगुष्ठमसन्तं ॥९०९॥ घरमें दास बनकर रहूँगा ।।९०५।। गा०-कामी मनुष्यकी वचन. कुशलता और समझदारी नष्ट हो जाती है। शास्त्रमें प्रविष्ट अति तीक्ष्ण भी बुद्धि मन्द हो जाती है ॥९०६॥ गा०-दुष्ट हथनीमें आसक्त जंगली हाथीकी तरह मूढ़ कामी पुरुष नेत्रवाला होकर भी अन्धा होता है क्योंकि उसे समीपकी वस्तु भी नहीं दिखाई देती। तथा कानवाला होकर भी बहरा होता है ।।९०७॥ गा०-जैसे जलमें डूबा और प्रवाहमें बहता मनुष्य चेतनारहित होता है। वैसे ही जिसका चित्त विषयरूपी पिशाचके द्वारा गृहीत है वह मनुष्य सब कार्यों में प्रवीण होते हुए भी • मन्द होता है। यहाँ विषयोंको पिशाच कहा है क्योंकि रूपादि विषय चित्तको मोहमें डाल देते हैं इसलिए वे पिशाचके समान हैं ॥९.०८।। गा०-गोरसंदीप नामक कामपीड़ित मनुष्य बारह वर्ष तक गणिकाके साथ रहकर भी यह नहीं जान सका कि गणिकाके पैर में अंगूठा नहीं है ॥९०९। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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