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________________ विजयोदया टीका ५२१ 'अयसमणत्थं' अयशः अनर्थं । दुःखं चेहलोके परलोके दुष्टां गति, संसारमप्यनन्तं भाविनं न वेत्ति विषयामिषे गृद्धः ॥९०१॥ णिच्च पि विसयहेदुं सेवदि उच्चो वि विसयलुद्धमदी । बहुगं पिय अवमाणं विसयंघो सहइ माणीवि ॥ ९०२ ॥ 'णिच्चं पि विसयहेतु' ज्ञानकुलादिभिरतीव न्यूनमपि सेवते कुलीनो बुद्धिमानपि विषयलुब्धमतिः । परिभवं महान्तमपि धनिभिः क्रियमाणं सहते विषयान्धः || ९०२ ॥ णीच पि कुणदि कम्मं कुलपुत्तदुगुंडियं विगदमाणो | 'वर ओवि कम्मं अकासि जह लंधियाहेदुं ॥९०३॥ 'णीचं पि कुणदि' नीचमपि करोति कर्म उच्छिष्टभोजनादिकं कुलीननिन्दितं विनष्टाभिमानः । वारतिगो नाम यतिरतिगर्हितं कर्म कृतवान् तथा कुलीनः स्त्रीनिमित्तं ॥ ९०३ ॥ सूरो तिक्खो मुक्खो वि होइ वसिओ जणस्स सधणस्स । विसयामिसम्म गिद्ध माणं रोसं च मोत्तूणं ॥ ९०४ ॥ 'सूरो तिक्खो मुक्खो वि होइ' सूरस्तीक्ष्णो मुख्योऽपि धनिनो जनस्य वशवर्ती भवति । विपयाभिलाषे लुब्धः गृद्धः अभिमानं रोषं मुक्त्वा ॥९०४॥ मणी व अरिस्सवि चयम्मं कुणदि णिच्चमविलज्जो । मादा पदरे दासं वायाए परस्स का तो ॥ ९०५ ॥ 'माणी वि असरिसस्स वि' मानी असदृशस्यापि चाटु करोति । वाचा आत्मीयां मातरं पितरं वा दास्यमापादयति । तवाहं दासो गृहे भवामीति वदन्परं कामयमानः ।। ९०५ ।। कि विषयासक्तिका फल संसार में अपयश, इस लोक में कष्ट, परलोकमें दुर्गति है तथा संसारका अन्त होना दुष्कर है || ९०१ || • गा० - विषयोंका लोभी मनुष्य कुलीन और वुद्धिमान् होते हुए भी विषय सेवनके लिए ज्ञान और कुल आदिसे अत्यन्तहीन की भी सेवा करता है । वह विषयान्ध धनी पुरुषोंके द्वारा किये गये महान् तिरस्कारको भी सहन करता है ||९०२ || गा० - वह अपना सन्मान खोकर कुलीन पुरुषोंके द्वारा निन्दित उच्छिष्ट भोजन आदि नीच कर्म करता है । जैसे वारत्रक नामक कुलीन यतिने नर्तकी के लिए अत्यन्त निन्दित काम किया ॥ ९०३ ॥ गा०-1 ० - विषयरूपी मांसका लोभी मनुष्य अभिमान और रोष त्यागकर सूरवीर, असहनशील और प्रमुख होते हुए भी धनी मनुष्यके वशमें हो जाता है ||९०४ || गा० - अभिमानी भी निर्लज्ज होकर अपनेसे नीच पुरुषका नित्य चाटुकर्म-पैर दबाना आदि करता है । अपने माता पिताको उसका दास दासी कहता है और कहता है कि मैं तुम्हारे १. वारत्तिओ आ० मु० । वारत्तओ वारत्रको नाम यतिः - मूलारा० । ६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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