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विजयोदया टीका मीदं उण्हं तण्हं खुहं च दुस्सेज्ज भत्त पंथसमं ।
सुकुमारो वि य कामी सहइ वहइ भार मवि गरुयं ।।९१०॥ 'सीदं उण्हं तण्हं' शीतं, उष्णं, तृष्णां, क्षुधां, दुःशयनं, दुराहारं कृतं, अध्वगमनश्रमं च सहते । कामी सुकुमारोऽपि गुरुमपि भारं वहति ।।९१०।।
गायदि णच्चदि धावदि कसइ ववदि लवदि तह मलेइ गरो । .. तुण्णेइ वुणइ जाचइ कुलम्मि जादो वि विसयवसो ।।९१।।
'गायदि णच्चदि' गायति, नृत्यति, धावति, कृषति, वपति, लुनाति, मई यति, सीव्यति, पट्टवस्त्रादिवयनं करोति । याचते कुलप्रसूतोऽपि सन्विषयमुपगत आत्मानं भार्या च पोषयितुं ॥९११॥
सेवदि णियादि रक्खदि गोमहिसिमजावियं हयं हत्थि ।
ववहरदि कुणदि सिप्पं सिणेहपासेण दढबद्धो ॥९१२।। 'सेवति णियादि' सेवति सस्यान्तर्गतं तृणादिकमेव । निजति, रक्षति गां, महिषीं, अजाः, आविर्क, हयं, हस्तिनो वा। वाणिज्यं करोति । समस्तनैपुण्यं अतीव तत्कर्मादिकं करोति कामिनीगतस्नेहभावेन दृढबद्धः ॥९१२॥
वेढेइ विसयहे, कलत्तपासेहिं दुन्विमोएहिं ।
कोसेण कोसियारुव्व दुम्मदी णिच्च अप्पाणं ।।९१३।। 'वेढेइ विसयहे,' वेष्टयति विषयहेतनिमित्तं । आत्मानं कलत्रपार्शर्मोचयितुमशक्यैः कोशेन कोशकारकीट इव दुर्मतिः ॥९१३॥
___ गा०-सुकुमार भी कामी पुरुष सर्दी, गर्मी, प्यास, भूख, खोटी शय्या, खराब भोजन, मार्गमें चलनेका श्रम सहता है और भारी बोझा ढोता हैं ॥९१०॥
___ गा०-उच्चकुलमें जन्मा भी मनुष्य विषयासक्त होकर गाता है, नाचता है, दौड़ता है, खेत जोतता है, अन्न बोता है, खेती काटता है, अनाज निकालता है, कपड़े सीता है, बुनता है ? यह सब काम विषय परवश होकर अपने और अपनी पत्नीके भरणपोषणके लिए करता है ॥९११॥
गा०-स्त्रीके स्नेहजालमें दृढ़तापूर्वक बँधा मनुष्य राजा आदिकी सेवा करता है, धानके खेतमें लगी घासको उपाडता है । गाय, भैंस, बकरी, भेड़े, घोड़ा, हाथी आदि पालता है। व्यापार करता हैं । शिल्पकर्म-चित्रकला आदि करता है ।।९१२॥
___ गा०-जैसे रेशमका कीड़ा अपने ही मुखमेंसे तार निकालकर उससे अपनेको बाँधता है। वैसे ही दुर्बुद्धि मनुष्य विषयोंके लिए स्त्रीरूप पाशके द्वारा, जिसका छूटना अशक्य है, नित्य • अपनेको बाँधता है ।।९१३।।
१. -मधिगभयं अ० ज०।
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