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________________ ७०६ भगवती आराधना घिदिधणियबद्धकच्छा धृत्या नितरां बद्धकक्ष्याः । 'अणुत्तरविहारिणो प्रकृष्टचारित्राः । 'सुदसहायाः' श्रुतज्ञानसहायाः । 'साधिति उत्तमट्ठ' साधयन्त्युत्तमार्थ रत्नत्रयं । 'सावददाढंतरगदा वि' श्वापददंष्ट्रामध्यगता अपि ॥१५३३॥ भल्लक्किए तिरत्तं खज्जंतो घोरवेदण'ट्टो वि । आराधणं पवण्णो ज्झाणेणावंतिसुकुमालो ॥१५३४॥ 'भल्लक्किए तिरत्तं खुज्जतो' शृगालेन तिसृषु रात्रिषु भक्ष्यमाणः । 'घोरवेदणट्टो वि' घोरवेदनाबाधितोऽपि । 'आराधणं पवण्णो ज्झाणेण' शुभघ्यानेनाराधनां प्रपन्नः । कः ? 'अवंतिसुकुमालो' अवंतिसुकुमारः ॥१५३४॥ पोग्गिलगिरिम्मि य सुकोसलो वि सिद्धत्थदइय भयवंतो। वग्घीए वि खज्जंतो पडिवण्णो उत्तमं अटुं ॥१५३५॥ उपुद्गलगिरी सुकोशलोऽपि सिद्धार्थस्य पुत्रो भगवान् व्याघ्न्या जननीचर्या भक्षितः सन् प्रतिपन्नः उत्तमार्थम् ॥१५३५॥ भूमीए समं कीला कोडि ददेहो वि अल्लचम्मं व । भयवं पि गयकुमारो पडिवण्णो उत्तमं अटुं ॥१५३६॥ "भूमीए समं भूमौ समं । 'कोलाकोडिददेहो' कीलोत्कृतदेहः । 'अल्लचम्मं व' आर्द्रचर्मवत् । 'भयवं पि' भगवान् गजकुमारोऽपि । उत्तमार्थ प्रतिपन्न ॥१५३६॥ . कच्छुजरखाससोसो भत्तेच्छअच्छिकुच्छिदुक्खाणि । अघियासयाणि सम्म सणक्कुमारेण वाससयं ॥१५३७।। जाकर दृढ़ धैर्यको अपनाकर, उत्कृष्ट चारित्रपूर्वक श्रुतज्ञानकी सहायतासे सिंहादिके मुँहमें जाकर भी उत्तमार्थ रत्नत्रयकी साधना करते हैं ॥१५३२-३३।। । गा०-अवन्ती अर्थात् उज्जैनी नगरीमें सुकुमार मुनि तीन रात तक शृगालीके द्वारा खाये जानेपर घोर वेदनासे पीड़ित होते हुए भी शुभध्यानके द्वारा रत्नत्रयकी आराधनाको प्राप्त हुए ॥१५३४॥ __गा०-पुद्गल या मुद्गल नामक पर्वतपर सिद्धार्थ राजाके प्रिय पुत्र भगवान् सुकौशल मुनि अपनी पूर्व जन्मकी माता व्याघ्रीके द्वारा खाये जानेपर उत्तमार्थको प्राप्त हुए ॥१५३५।। गा०—पृथ्वीके साथ गीले चमड़ेकी तरह शरीरमें कीलें ठोककर एकमेक कर देनेपर भी भगवान् गजकुमार मुनि उत्तमार्थको प्राप्त हुए ॥१५३६।।। गा-सनत्कुमार मुनि ने सौ वर्षों तक खाज, ज्वर, खांसी, सूखापन, तीव्र उदराग्नि, नेत्रपीड़ा, उदरपीड़ा आदिके दुःख बिना संक्लेशके धैर्यपूर्वक सहन किये ॥१५३७।। १. गंगोवि अ० आ० । २-३, मोग्गिल-मु०, मूलारा० । ४. कीलाहोडिद-अ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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