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________________ ८८ भगवती आराधना पराभ्युपगतः बुद्धयादिगुणरहितत्वाद्भस्मवत् । रागादिक्लेशवासनारहितं चित्तमेव मुक्तिशब्देनोच्यते इत्यत्रापि चित्तमत्यंतासाधारणरूपं । यद्य के चिद्रपं नेतरदिति तस्य स्वभावोऽनिरूप्यः । असाधारणस्वरूपशून्यं यत्तदसद्यथा-नभस्तामरसं । असाधारणरूपशून्यं च विवक्षिताच्चित्तादन्यदिति । एवं मतान्तरे निरूपितानां सिद्धानामघटमानत्वाद्वाधाकारिसकलकर्मलेपनिर्दहनसमुपजाताचलस्वास्थ्यसमवस्थिताः अनंतज्ञानात्मकेन सुखेन संतृप्ताः सिद्धा इति तन्माहात्म्यकथनं सिद्धानां वर्णजननम् । __ यथा वीतरागद्वेषास्त्रिलोकचूलामणयोऽहंदादयो भव्यानां शुभोपयोगकारणतामुपयान्ति तद्वदेतान्यपि तदीयानि प्रतिबिंबानि । बाह्यद्रव्यालंबनो हि शुभोऽशुभो वा परिणामो जायते । यथात्मनि मनोज्ञामनोज्ञविषयसान्निध्याद्रागद्वषो यथा स्वपुत्रसदृशं सुदर्शनं पुत्रस्मृतेरालंबनं । एवमर्हदादिगुणानुस्मरणनिबंधनं प्रतिबिंबम् । तदानुस्मरणं अभिनवाशुभप्रकृतेः संवरणे, प्रत्यग्रशुभकर्मादाने, गृहीतशुभप्रकृत्यनुभवस्फारीकरगे, पूर्वोपात्ताशुभप्रकृतिपटलरसापहासे च क्षममिति सकलाभिमतपुरुषार्थसिद्धिहेतुतया उपासनीयानीति चैत्यमहत्ताप्रकाशनं चैत्यवर्णजननमिति । __ केवलज्ञानवदशेषजीवादिद्रव्ययाथात्म्यप्रकाशनपटु, कर्मधर्मनिर्मूलनोद्यतशुभध्यानचंदनमलयायमानं स्वपरसमुद्धरणनिरतविनेयजनताचित्तप्रार्थनीयं, प्रतिबद्धाशुभास्रवं, अप्रमत्ततायाः संपादकं सकलविकलप्रत्यक्षज्ञानआत्माकी सत्ता कैसे रहेगी। तथा दूसरोंके द्वारा माना गया आत्मा बुद्धि आदि गुणोंसे रहित होनेसे भस्मके समान है। बौद्धमतमें रागादि क्लेशवासनासे रहित चित्त ही मुक्ति शब्दसे कहा जाता है। उनके मतमें भी चित्त अत्यन्त असाधारणरूपको लिये हुए हैं। यदि चिद्रूप एक ही है अन्य नहीं है तो उसका स्वरूप निरूपण करनेके योग्य नहीं है। जो असाधारण स्त्ररूपसे शून्य होता है वह असत् होता है जैसे आकाशका कमल । और विवक्षित चित्तसे अन्य चित्त असाधारण स्वरूपसे शून्य है। इस प्रकार अन्य मतोंमें कहे गये सिद्धोंका स्वरूप नहीं बनता। अतः बाधा पैदा करनेवाले समस्त कर्मरूपी लेपको जला डालनेसे उत्पन्न हुए निश्चल स्वास्थ्यसे युक्त और अनन्तज्ञानरूप सुखसे सन्तृप्त सिद्ध होते हैं । इस प्रकार उनके माहात्म्यको कहना सिद्धोंका वर्णजनन है। जैसे राग-द्वेषसे रहित और तीनों लोकोंके चूड़ामणि अर्हन्त आदि भव्यजीवोंके शुभोपयोगमें निमित्त होते हैं, उन्हींकी तरह उनके ये प्रतिबिम्ब भो शुभोपयोगमें निमित्त होते हैं। क्योंकि बाह्य द्रव्यका आलम्बन लेकर शुभ अथवा अशुभ परिणाम होते हैं। जैसे मनोज्ञ और अमनोज्ञ विषयोंकी समीपतासे आत्मामें राग-द्वेष होते हैं। या जैसे अपने पुत्रके समान व्यक्तिका दर्शन पुत्रकी स्मृतिका आलम्बन होता है। इसी तरह प्रतिबिम्ब अर्हन्त आदिके गुणोंके स्मरणमें निमित्त होता है। यह गुणस्मरण नवीन अशुभ प्रकृतिके आस्रवको रोकनेमें, नवीन शुभकर्मके बन्धमें, बन्धे हुए शुभकर्मके अनुभागको बढ़ाने में और पूर्वबद्ध अशुभ प्रकृति समूहके अनुभागको कम करने में समर्थ होता है। इस तरह समस्त इष्ट पुरुषार्थकी सिद्धिमें कारण होनेसे प्रतिबिम्बोंकी उपासना करना चाहिए। इस रूपसे प्रतिबिम्बकी महत्ताका प्रकाशन चैत्यवर्ण जनन है। श्रुतज्ञान केवलज्ञानकी तरह समस्त जीवादि द्रव्योंके यथार्थस्वरूपको प्रकाशित करने में दक्ष होता है, कर्मरूपी घामको मूलसे नष्ट करने में उद्यत शुभध्यानरूपी चन्दनके लिए मलयपर्वतके समान है। अपना और दूसरोंका उद्धार करनेमें लगे हुए शिष्यजनोंके द्वारा अन्तःकरणसे प्रार्थनीय है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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