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विजयोदया टीका भत्ती पूया वण्णजणणं च णासणमवण्णवादस्स ।।
आसादणपरिहारो दसणविणओ समासेण ॥४६॥ का भत्ती पूजा ? अहंदादिगुणानुरागो भक्तिः । पूजा द्विप्रकारा द्रव्यपूजा भावपूजा चेति । गन्धपुष्पधूपाक्षतादिदानं अर्हदाधुद्दिश्य द्रव्यपूजा अभ्युत्थानप्रदक्षिणीकरणप्रणमनादिका कायक्रिया च, वाचा गुणसंस्तवनं च । भावपूजा मनसा तद्गुणानुस्मरणं ।
_ 'वण्णजगणं' वर्णशब्दः क्वचिद्रूपवाची शुक्लवर्णमानय शुक्लरूपमिति । अक्षरवाची क्वचिद्यथा 'सिद्धोवर्णसमाम्नायः' इति । क्वचित् ब्राह्मणादौ यथात्रव वर्णानामधिकार इति । क्वचिद्यशसि वर्णार्थी ददाति । तथा इहाप्यनंतरार्थो गृहीतः । तेन अर्हदादीनां यशोजननं विदुषां परिषदि । अन्येषामविश्ववेदिनां दृष्टष्टविरुद्धवचनताप्रदर्शनेन निवेद्य तत्संवादिवचनतया महत्ताप्रख्यापनं भगवतां वर्णजननम् ।
चैतन्यमात्रसमवस्थानरूपे निर्वाणे नापूर्वातिशयप्राप्तिरस्ति । यत्नमंतरेण सर्वात्मसु चैतन्यस्य सदा स्थितेः। विशेषरूपरहितत्वादसच्चैतन्यं खपुष्पवत् । प्रकृतेरचेतनाया मुक्तिरनुपयोगिनी। किं तया बद्धया मुक्या वा फलमात्मनः ? अनया दिशा कापिलमते सिद्धता दरुपपादा। बद्धयादिविशेषगण ऽन्येषां । आत्मनोऽचेतनतां कः सचेतमोऽभिलषति । विशेषरूपश्न्यं वा कथमात्मनः सत्ता ? नैव चासावात्मा
गा०-भक्ति, पूजा, वर्णजनन और अवर्णवादका नाश करना तथा आसादनाका दूर करना संक्षेपसे दर्शन विनय है ॥४६॥
टो०-भक्ति और पूजा किसे कहते हैं ? अर्हन्त आदिके गुणोंमें अनुराग भक्ति है। पूजाके दो प्रकार हैं-द्रव्यपूजा और भावपजा। अर्हन्त आदिका उद्देश करके गन्ध, पुष्प, धूप, अक्षत आदि अर्पित करना द्रव्यपूजा है। तथा उनके आदरमें खड़े होना, प्रदक्षिणा करना, प्रणाम आदि करना रूप शारीरिक क्रिया और वचनसे गुणोंका स्तवन भी द्रव्यपूजा है। मनसे उनके गुणोंका स्मरण भाव पूजा है।
"वर्णजनन' में वर्णशब्द कहीं तो रूपका वाचक है जैसे 'शुक्लवर्ण लाओ' यहां उसका अर्थ शुक्लरूप है। कहीं 'वर्ण' अक्षरका वाचक है। जेसे 'सिद्धो वर्णसमाम्नायः' यहाँ वर्णका अर्थ अक्षर है । कहीं वर्णशब्द ब्राह्मण आदिका वाचक है। जैसे 'यहाँ वर्णोंका ही अधिकार है। यहाँ वर्णसे ब्राह्मण आदि लिये गये है। कहींपर वर्णका अर्थ यश है। जैसे वर्णार्थी दान करता है। यहाँ वर्णका अर्थ यश है। यहाँ भी वर्णसे यश अर्थ लिया है। अतः विद्वानोंकी सभामें अर्हन्त आदिका यश फैलाना, दूसरे असर्वज्ञोंकी प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणसे विरुद्धता दिखलाकर उनके वचनींके संवादि होनेसे महत्ताका ख्यापन करना अर्हन्तोंका वर्णजनन है।
चैतन्यमात्रमें स्थितिरूप निर्वाणको माननेपर अपूर्व अतिशयको प्राप्ति नहीं होती। विना प्रयत्नके ही सभी आत्माओंमें चैतन्य सदा रहता है। तथा विशेषरूपसे रहित चैतन्य आकाशके फूलके समान असत् होता है । अचेतन प्रकृतिकी मुक्ति मानना व्यर्थ है। उसके बँधने या मुक्त होनेसे आत्माको क्या ? इस प्रकार सांख्यके मतमें सिद्धता नहीं बनती।
वैशेषिक आदि दूसरे दार्शनिक सिद्ध अवस्थामें बुद्धि आदि विशेष गुणोंका अभाव मानते हैं। इस तरह कौन सचेतन आत्माको अचेतन बनाना पसन्द करेगा। तथा विशेष धर्मोसे शून्य
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