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________________ भगवती आराधना मित्युच्यते । द्रव्येषु ममेदं भावमूलो व्यसनोपनिपातः सकल इति ततः परित्यागो लाघवं । अशनादिपरित्यागात्मिका क्रिया अनपेक्षितदृष्टफला द्वादशविधा तपः। इंद्रियविषयरागद्वेषाभ्यां निवृत्तिरिद्रियसंयमः । षड्जीवनिकायबाधाऽकरणादपरः प्राणिसंयमः । अकिंचणदा सकलग्रंथत्यागः । ब्रह्मचर्य नवविधब्रह्मपालनं । सता साधूनां हितभाषणं सत्यम् । संयतप्रायोग्याहारादिदानं त्यागः । एते दशधर्माः। साधयन्ति रत्नत्रयमिति साधवस्तेषां वर्गः समूहः । तस्मिन्वस्तुयाथात्म्यग्राहिज्ञाने परिणतिर्ज्ञानाचारः । तत्त्वश्रद्धानपरिणामो दर्शनाचारः । पापक्रियानिवृत्तिपरिणतिश्चारित्राचारः। अनशनादिक्रियासु वृत्तिस्तप आचारः । स्वशक्त्यनिगूहनरूपा वृत्तिर्ज्ञानादौ वीर्याचारः । एतेषु पंचस्वाचारेषु ये वर्तन्ते परांश्च प्रवर्तयंति ते आचार्याः । रत्नत्रयेषु उद्यता जिनागमार्थ सम्यगुपदिशंति ये ते उपाध्यायाः उपेत्य विनयेन ढौकित्वा अघीयते श्रुतमस्मादित्युपाध्यायः। 'पवयणे' प्रवचने । ननु श्रुतशब्दः प्रवचनवाची ततः पुनरुक्तता ? रत्नत्रयं प्रवचनशब्देनोच्यते । तथा चोक्तम्-'णाणदंसणचरित्तमेगं पवयणमिति' । अथवा श्रतज्ञानं श्रतमित्युक्तं पूर्वमिह तु प्रोच्यते जीवादयः पदार्था इति शब्दश्रुतमुच्यते । 'दंसणे' सम्यग्दर्शने च ॥ ४५ ॥ - कार्योंके प्रयोजनके विना जाति आदिका अभिमान नहीं होना मार्दव है। एक ऐसे धागेकी तरह जिसके दोनों छोर खींचे हुए हैं, कुटिलताके अभावको आर्जव कहते हैं। द्रव्योंमें 'यह मेरा है' यह भाव समस्त विपत्तियोंके आनेका मूल है अतः उसका त्याग लाघव है । लौकिकफलकी अपेक्षा न करके भोजन आदिके त्यागरूप क्रियाका नाम तप है उसके बारह भेद हैं। इन्द्रियोंके विषयोंमें रागद्वेष न करना इन्द्रियसंयम है। छह कायके जीवोंको बाधा न पहुंचाना दूसरा प्राणिसंयम है। समस्त परिग्रहका त्याग आकिञ्चन्य धर्म है। नौ प्रकारसे ब्रह्मका पालन ब्रह्मचर्य है । सज्जन साधु पुरुषोंके हितकारी भाषणको सत्य कहते हैं। संयमियोंके योग्य आहार आदि देना त्याग है। ये दस धर्म हैं। ____ जो रत्नत्रयका साधन करते हैं वे साधु हैं। उनके समूहको साधुवर्ग कहते हैं। वस्तुके यथार्थस्वरूपको ग्रहण करनेवाले ज्ञानमें लगना ज्ञानाचार है। तत्त्वश्रद्धानरूप परिणाम दर्शनाचार है। पाप कार्योंसे निवृत्तिरूप परिणति चारित्राचार है। अनशन आदि क्रियाओंमें लगना तप आचार है। ज्ञानादिमें अपनी शक्तिको न छिपाकर प्रवृत्ति करना वीर्याचार है। इन पांच आचारोंमें जो स्वयं प्रवत्त होते हैं और दूसरोंको प्रवृत्त करते हैं वे आचार्य हैं । जो रत्नत्रयमें तत्पर हैं और जिनागमके अर्थका सम्यक् उपदेश करते हैं वे उपाध्याय हैं । विनय पूर्वक जाकर जिनसे श्रुतका अध्ययन किया जाता है वे उपाध्याय हैं । पवयणका अर्थ प्रवचन है । शङ्का-श्रुत शब्दका अर्थ भी प्रवचन है। वह आ चुका है। फिर प्रवचन कहनेसे पुनरुक्तता दोष होता है। समाधान-प्रवचन शब्दसे रत्नत्रयको कहते हैं। कहा है-ज्ञान, दर्शन और चारित्र ये प्रवचन हैं।' अथवा पूर्वमें श्रुतसे श्रुतज्ञान कहा है । यहाँ प्रवचन शब्दसे शब्दरूप श्रुत कहा है। जिसके द्वारा जीवादि पदार्थ 'प्रोच्यन्ते' प्रकर्षरूपसे कहे जाते हैं वह प्रवचन है इस व्युत्पत्तिके अनुसार प्रवचनका अर्थ शब्दरूप श्रुत होता है । दर्शनसे सम्यग्दर्शन जानना ॥४५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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