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________________ विजयोदया टीका ८५ शरीरं ज्ञायकशरीरं । भविष्यत्सिद्धत्वपर्यायो भाविसिद्धः । व्यतिरिक्तसिद्धो न संभवति । सिद्धत्वं न कर्मकारणम इति सकलकर्मापायहेतुका सिद्धता । पुद्गलद्रव्यस्य तदुपकारिणोऽसंभवान्नोकर्मसिद्धाभावः । सिद्धप्रामृतानुसारिसिद्धज्ञानपरिणत आगमभावसिद्धः । निरस्तभाव द्रव्यकर्ममलकलङ्कः परिप्राप्तसकलक्षायिक भावः नोआगमभावसिद्धः । स इह गृहीतो न इतरे सकलात्मस्वरूपप्राप्त्यभावात् । 'चेदिय चैत्यं प्रतिबिंबं इति यावत् । कस्य ? प्रत्यासत्तेः श्रुतयोरेवाहत्सिद्धयोः प्रतिबिंवग्रहणं । अथवा मध्यप्रक्षपः पूर्वोत्तरगोचरस्थापनापरिग्रहार्थस्तेन साध्वादिस्थापनापि गृह्यते । श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमाज्जातं वस्तुयाथात्म्यग्राहि श्रद्धानानुगतं श्रुतं अंगपूर्वप्रकीर्णकभेदभिन्न, तीर्थंकर श्रुतकेवल्यादिभिरारचितो वचनसंदर्भो वा, लिप्यक्षरधृतं वा । धर्मशब्देन चारित्रं समीचीनमुच्यते । ज्ञानदर्शनाम्यामनुगतं सामायिकादि पंचविकल्पम् । दुर्गतिप्रस्थित जीवधारणात्, शुभे स्थाने वा दधाति इति धर्मशब्देनोच्यते । अथवा 'खंती मद्दव अज्जव लाघव तव संजमो अकिंचणदा। तह होदि बम्भचेरं सच्चं चागो य दस धम्मा ॥ -[मूलाचार ८।६२] इति सूत्रांतरनिर्दिष्टधर्मपरिग्रहः । क्रोधनिमित्तसान्निध्येऽपि कालुष्याभावः क्षमा स्नेहकार्याद्यनपेक्षः । जात्याद्यभिमानाभावो मान'दोषापेक्षस्य दृष्टकार्यानपाश्रयो मार्दवम् । आकृष्टान्तद्वयसूत्रवद्वक्रताभावः आर्जव शास्त्रके ज्ञाताओंका शरीर ज्ञायकशरीर है। भविष्यमें जिसे सिद्धपर्याय प्राप्त होगी वह भाविसिद्ध है। तद्वयतिरिक्त सिद्ध सम्भव नहीं है क्योंकि सिद्धत्वपर्यायका कारण कर्म नहीं है। सिद्धता तो समस्त कर्मोके विनाशसे प्राप्त होती है। उस सिद्धत्वपर्यायका उपकारी पुद्गलद्रव्य नहीं है इसलिए नोकर्मसिद्ध भी नहीं हैं। सिद्ध विषयक शास्त्रके अनुसार सिद्धोंके ज्ञानरूप जो परिणत है वह आगम भाव सिद्ध है। जिसने भावकर्म और द्रव्यकर्ममलरूप कलंकको नष्ट करके सकलक्षायिकभावोंको प्राप्त कर लिया है वह नो आगम भावसिद्ध है। उसीका यहाँ ग्रहण किया है अन्यका नहीं; क्योंकि उन्होंने पूर्ण आत्मस्वरूपको प्राप्त नहीं किया है। चैत्य प्रतिबिम्बको कहते हैं। चैत्य शब्द अर्हन्त और सिद्धके समीप है अतः सिद्ध और अईन्तके ही प्रतिबिम्ब ग्रहण करना। अथवा उससे पूर्वकी और उत्तरकी स्थापनाका ग्रहण करनेके लिए चैत्य शब्दको मध्यमें रखा है । उससे साधु आदिकी स्थापनाका भी ग्रहण होता है। श्रुतज्ञानावरणके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुआ तथा वस्तुके यथार्थ स्वरूपको ग्रहण करनेवाला श्रद्धान सहित ज्ञान श्रुत है । उसके भेद ग्यारह अंग, चौदह पूर्व और अंगबाह्य हैं । अथवा तीर्थंकर और श्रुतकेवली आदिके द्वारा रचा गया वचन सन्दर्भ श्रुत है । अथवा जो लिपि रूप अक्षरश्रुत है वह श्रुत है। धर्म शब्दसे समीचीन चारित्र कहा जाता है। ज्ञान और सम्यग्दर्शनसे अनुगत वह चारित्र सामायिक आदिके भेदसे पाँच प्रकार का है। दुर्गतिमें पडे हए जीवको धारण करनेसे अथवा शुभ स्थानमें धरनेसे उसे धर्म शब्दसे कहते हैं अथवा धर्म शब्दसे शास्त्रमें कहे गये क्षमा, मार्दव, आर्जव, लाघव, तप, संयम, आकिञ्चन्य, ब्रह्मचर्य, सत्य, त्याग ये दस धर्म ग्रहण किये हैं। क्रोधके निमित्तोंके रहते हुए भी कलुषताके अभावको क्षमा कहते हैं। यह क्षमा किसी स्नेह सम्बन्धी कार्य आदिकी अपेक्षाके विना होती है। मानकी बुराइयोंकी अपेक्षा न करके तथा लौकिक १. दोषानपेक्षश्च दृ-आ० मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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