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________________ भगवती आराधना सोऽयमित्यभिसंबंधादर्हद्वयपदेशभांजि पूजातिशयाहत्त्वेऽपि अरिहननादिगुणासंभवान्नेह गृह्यन्ते । आगमद्रव्याहन्नहत्स्वरूपव्यावर्णनपरप्राभृतज्ञोऽनुपयुक्तस्तदर्थेऽन्यत्र व्यापृतः। ज्ञायकशरीराहन्नाम तत्प्राभृतज्ञस्य त्रिकालगोचरं शरीरं । यस्मिन्नात्मनि अरिहननादयो भविष्यंति गुणाः स भाव्यर्हन् । तीर्थकरनामकर्म तद्व्यतिरिक्तद्रव्याईन् । अर्हद्वयावर्णनपरप्राभृतप्रत्ययोऽर्हन्नि सो बोध आगमभावार्हन् । एतेषु अरिहननादिगुणानामभावात् नेहार्हच्छब्देन ग्रहणम् । एवं नामसिद्धः अलब्धसकलात्मस्वरूपे सिद्धशब्दः । यस्य वा निमित्तनिरपेक्षा सिद्धसंज्ञा। स्थापनासिद्धा इति तत्प्रतिबिंबानि उच्यन्ते । ननु सशरीरस्यात्मनः प्रतिबिंबं युज्यते, अशरीराणां तु शुद्धात्मनां सिद्धानां कथं प्रतिबिंबसंभवः ? पूर्वभावप्रज्ञापननयापेक्षया शरीरमनुग्तो य आत्मा सयोगकेवलीतरो वा न शरीरान्निर्भक्तु शक्यते। विभागे हि शरीरात्संसारिता न स्यात् । अशरीरः संसारी चेति विरुद्धमेतत् । ततः शरीरसंस्थानबच्चिदात्मापि संस्थानवानेव संस्थानवतोऽव्यतिरिक्तत्वाच्छरीरस्थात्मवत् । स एव चायं प्रतिपन्नसम्यक्त्वाद्यष्टगुण इति स्थापनासंभवः। आगमद्रव्यसिद्धः सिद्धप्राभृतज्ञः सिद्धशब्देनोच्यते अनुपयुक्तः । सिद्धप्राभृतज्ञस्य नामसे जो अर्हन्त हैं उनका यहाँ ग्रहण नहीं है। अर्हन्त संज्ञाके जो निमित्त कहे हैं उनके अभावमें भी जबरदस्तीसे जो अर्हत् नाम रख दिया जाता है उसे नाम अर्हत् कहते हैं । अर्हन्तोंके प्रतिबिम्ब 'वे अर्हन्त यही हैं। इस प्रकारको स्थापनाके सम्बन्धसे अर्हन्त कहे जाते हैं और वे सातिशय पूजाके योग्य भी हैं फिर भी उनमें मोहनीय कर्मका विनाश आदि गुण न होनेसे यहाँ उनका ग्रहण नहीं किया है। अर्हन्तके स्वरूपका वर्णन करनेवाले शास्त्रका ज्ञाता, जो उसमें उपयोग नहीं लगा रहा किसी अन्य कार्यमें लगा है वह आगम द्रव्यअर्हन्त है। उस अर्हन्तविषयक शास्त्रके ज्ञाताका जो भूत वर्तमान और भावि शरीर है वह ज्ञायक शरीर अर्हन्त है। जिस आत्मामें अरिहनन आदि गुण भविष्यमें होंगे वह भाविअर्हन्त है। तीर्थङ्करनामकर्म तद्व्यतिरिक्त द्रव्य । अर्हन्तके वर्णनमें तत्पर शास्त्रका जो ज्ञान है-अर्थात् अर्हन्तविषयक जो ज्ञान है वह आगमभाव अर्हन्त है । इन सबमें अरिहनन आदि गुगोंका अभाव होनेसे यहाँ अर्हत् शब्दसे उनका ग्रहण नहीं किया है। इसी प्रकार जिसने सम्पूर्ण आत्मस्वरूपको प्राप्त नहीं किया उसमें सिद्ध शब्दका व्यवहार नाम सिद्ध है। अथवा सिद्ध शब्दकी प्रवृत्तिमें निमित्त आठ कर्मोके विनाशकी अपेक्षा न करके जिसका नाम सिद्ध रखा गया है वह नामसिद्ध है । सिद्धोंके प्रतिबिम्बोंको स्थापनासिद्ध कहते हैं । शंका-शरीरसहित आत्माका प्रतिबिम्ब तो युक्त है। शरीर रहित शुद्ध आत्माओंका प्रतिबिम्ब कैसे सम्भव है ? समाधान-पूर्वभाव प्रज्ञापननयकी अपेक्षा जो आत्मा शरीरमें था, वह सयोगकवली हो या अन्य हो, उसे शरीरसे अलग नहीं किया जा सकता। यदि उसे शरीरसे पृथक् ही सर्वथा कर दिया जाये तो उसका संसारोपना नहीं बनता; क्योंकि शरीरसे रहित हो और संसारी हो यह तो परस्पर विरुद्ध है। अतः शरीरके आकारको तरह चेतन आत्मा भी आकारवान ही है क्योंकि वह आकारवानसे अभिन्न है, जैसे शरीरमें रहनेवाला आत्मा। वही यह सम्यक्त्व आदि आठगुणोंसे सहित है इस प्रकार सिद्धकी स्थापना सम्भव है। जो सिद्ध विषयक शास्त्रका ज्ञाता उसमें उपयुक्त नहीं है और उसे सिद्ध शब्दोंसे कहा जाता है तो वह आगमद्रव्य सिद्ध है। सिद्धविषयक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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