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________________ ७३९ विजयोदया टीका जह इंधणेहिं अग्गी जह य समुद्दो णदीसहस्सेहिं । आहारेण ण सक्को तह तिप्पेईं इमो जीवो ॥१६४९।। 'जह इंधणेहि अग्गो' यथेन्धनरग्निर्नदीसहस्ररुदधिस्तर्पयितुमशक्यस्तथाहारेण जीवः ।।१६४९।। देविंदचक्कवट्टी य वासुदेवा य भोगभूमा य । आहारेण ण तित्ता तिप्पदी कह भोयण अण्णो ॥१६५०॥ 'देविंदचक्कवट्टी य' देवेन्द्रा लाभान्तरायक्षयोपशमप्रकर्षात् आत्मीयतनुतेजोनिमित्तेन आहारण, चक्रवर्तिनोऽपि षष्ट्यधिकत्रिशतसूपकारैर्वर्षमात्रेणकदिनाहार संस्करणोद्यतैः ढोकितेन तथार्द्धचक्रवर्तिनोऽपि । भोगभूमिजा भोजनाङ्गकल्पतरुप्रभवेन न तृप्ताः । कथमन्यो जनस्तृप्यति ॥१६५०॥ उधुदमणस्स ण रदी विणा रदीए कुदो हवदि पीदी । पीदीए विणा ण सुहं उधुदचित्तस्स घण्णस्स ॥१६५१॥ 'उद्घदमणस्स' इतो भद्रमतो भद्रमस्माच्चेदमिति परिप्लवमानचेतसो न रतिः, क्व च तया विना प्रीतिः । प्रीत्या च विना न सुखं चलचित्तस्य तत्तदाहारलम्पटस्य ॥१६५१॥ सव्वाहारविधाणेहिं तुमे ते सव्वपुग्गला बहुसो । आहारिदा अदीदे काले तित्तिं च सि ण पत्तो ।।१६५२।। 'सम्वाहरणविषाणेहि' अशनपानखाद्यलेहविकल्पैस्त्वया सर्वे पुद्गला बहुश आहारिताः अतीते काले तृप्ति च न च प्राप्तो भवान् ॥१६५२॥ गा०-जैसे इंधनसे आगकी और हजारों नदियोंसे समुद्रको तृप्ति नहीं होती वैसे ही यह जीव आहारसे तृप्त नहीं हो सकता ॥१६४९।। गा०-टो०-देवेन्द्रोंके लाभान्तरायके क्षयोपशमका प्रकर्ष होनेसे अपने शरीरके तेजके • निमित्तसे आहार प्राप्त होता है। भोजनकी इच्छा होते ही कण्ठसे अमृत झरता है। चक्रवर्तीके भी तीन सौ साठ रसोइयां : रसोइयां होते हैं और वे सब मिलकर एक वर्षका आहार एक दिन में बनाते हैं । अर्धचक्रवर्तीकी भी ऐसी स्थिति है। भोगभूमिके जीवोंको भोजनांग जातिके कल्पवृक्षोंसे यथेच्छ आहार प्राप्त होता है । फिर भी इन सबकी तृप्ति नहीं होती। तब साधारण मनुष्य भोजन से कैसे तृप्त हो सकता है ॥१६५०॥ गा०-टी०-यह आहार उत्तम है। इससे भी यह आहार उत्तम है इस प्रकारसे जिसका चित्त चंचल रहता है उसके चित्तमें अनुराग नहीं होता। अनुरागके बिना प्रीति नहीं होती। और प्रीतिके बिना सुख नहीं होता । इस प्रकार विभिन्न आहारोंके लम्पटी चंचलचित्त मनुष्यको आहारसे सुख नहीं होता ॥१६५१॥ गा०-हे क्षपक ! अतीतकालमें तुमने अन्न, पान, खाद्य और लेह्यके भेदसे चार प्रकारका आहार करके सब पुद्गलोंको बहुत बार खाया है फिर भी तुम्हारी तृप्ति नहीं हुई ॥१६५२!! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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