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________________ '७४० भगवती आराधना किं पुण कंठप्पाणो आहारेदण अज्जमाहारं । लभिहिसि तित्ति पाऊणुदधिं हिमलेहणेणेव ॥१६५३।। "किं पुण' किं पुनः कण्ठप्राणोऽप्याहारं गृहीत्वा प्रीति लप्स्यसे । पीत्वोदधि न तृप्तो हि यथा हिमलेहनेन ॥१६५३॥ को एत्थ विभओ दे बहुसो आहारभुत्तपुवम्मि । जुज्जेज्ज हु अभिलासो अभुत्तपुव्वम्मि आहारे ॥१६५४॥ 'को एत्य विभओ' कोऽत्र विस्मयः। आहारे बहुशो भक्तपूर्वे । युज्यते आहारार्थे अभिलाषो ऽभुक्तपूर्वे ॥१६५४॥ आवादमेत्तसोक्खो आहारणो हु सुखमत्थ बहु अत्थि । दुःखं चेवत्थ बहुं आहटेंतस्स गिद्धीए ॥१६५५॥ 'आवादमित्तसोक्खो' जिह्वाग्रपातमात्रसुखं आहारः । न सुखमत्र बह्वस्ति । दुःखमेवात्र बहु 'अभिलषिताहारगृद्धया ॥१६५५॥ सुखस्याल्पतायाः कारणमाचष्टे जिब्भामूलं बोलेइ वेगदो वरहओव्व आहारो। तत्थेव रसं जाणइ ण य परदो ण वि य से परदो ॥१६५६।। जिह्राया मूलं वेगेनातिक्रामत्याहारः जात्यश्व इव । जिह्वामात्र एव रसं वेत्ति जीवो न आहारानुपरितः, न च पुरतोऽग्रतः । अल्पा च जिह्वा ॥१६५६॥ गा०-अब तो तुम्हारे प्राण कण्ठगत है अर्थात् तुम्हारी मृत्यु निकट है। जैसे समुद्रको पीकर जो तृप्त नहीं हुआ वह ओसको चाटनेसे तृप्त नहीं हो सकता। उसी प्रकार जब तुम समस्त पुद्गलोंको 'खाकर भी तृप्त नहीं हुए तब मरते समय आज भोजनसे कैसे तृप्त हो सकते हो ॥१६५३॥ गा-जो आहार तुमने पहले अनेक बार खाया है उसमें तुम्हारी उत्सुकता कैसी ? जो आहार पहले कभी नहीं खाया है उसमें अभिलाषा होना तो उचित है । जिसे तुम अनेक बार भोग चुके हो उसमें अभिलाषा होना ही आश्चर्यकारी है ।।१६५४॥ गाo--आहारमें बहुत सुख नहीं है केवल जिह्वाके अग्रभागमें रखनेमात्र ही सुख है। किन्तु इच्छितआहारकी लिप्सासे जो दुःख होता है वह दुःख ही बहुत है ॥१६५५|| आहारमें स्वल्पसुख होनेका कारण कहते हैं गा०-टी०-जैसे उत्तम घोड़ा बड़ा तेज दौड़ता है वैसे ही आहार भी जिह्वाके मूलको बड़े वेगसे पार करता है अर्थात् जिह्वापर ग्रास आते ही वह झट पेटमें चला जाता है। बस जिह्वापर रहते हुए ही जीवको आहारके स्वादको प्रतीति होती है, न पहले होती है और न १. लषितमाहा-अः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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