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________________ विजयोदया टीका १८३ अथवा यदा तीर्थकृतः संभवन्ति तदा अनियतविहारो यतिजिनानां ज्ञानत्रयचारिणां अवाप्तस्वर्गावतरणपूजातिशयानां जन्माभिषेककल्याणं भुवनभवनान्तर्लीनतमोवितानापनयनोद्यतं, सुधापानमिव सकलप्राणभृदारोग्यविधायि, सुरविलासिनीननिमिव सकलजगदानंददायि, प्रियवचनमिव मनःप्रसादकारि, पुण्यकर्मेव अगण्यपुण्यवितरणप्रवीणं, लक्ष्मीपरिचारिकाभिः साश्चर्य ससंभ्रमं ईक्षितं, गह्यकामरप्रकीर्णानेकसुरभिप्रसूनकरणगन्धानुभ्रमभ्रमरकृतकोलाहलं अनारतप्रहतमंगलभेरीभंभाध्वनिभरितभुवनविवरं, सुरवधूनर्तनजिगीषयेव सौधशिखररङ्गनत्यत्प्रत्यग्रपञ्चवर्णपताकाविलासिनीक, हरिविष्टरप्रचलनोपनीतसाध्वसनवसूरवल्लभारभसकण्ठग्रहप्रीतिविकासिमुखशतमखसुखं, संम्रमोत्थितकृताञ्जलिपुटसुरपरिवारसादराकर्ण्यमानवज्रभृदाज्ञं, भेर्यादिध्वानाहूतप्रमुखसकलगीर्वाणचक्रं, परस्परसंघर्षगृहीतोत्तरवैक्रियिकदेवपृतनाव्याप्तपवनपथदेश,जन्माभिषेकसमयप्रयाणसंपादानायातपोलोमीनपुरध्वानचकितहसीविलासविराजमानराजमन्दिराङ्गणं, ऐरावतावतीर्णप्रसारितवज्रिवनघनभुजार्गलं, सुरकरप्रहारप्रसरदुंदुभिभेरीध्वानसन्मिश्रसिंहनादवधिरितविशालाशामुखं, प्रहतानेकप्रयाणकपटहगम्भीरधीरारावं, असकलशशिकरावदातचमररुहविक्षेपदक्षबलभिन्निकुरुंवजिनावलोकनव्यग्रसुराग्रमहिषीक, श्वेतातपत्रजलधरघटावरुद्धनभोमंडलं, विद्युदायमानपताकाकुलं, इन्द्रनीलमयसोपानप्रयायिसुरपतनं, सुरगजरदनसरोनलिनदलरंगशोभाविधायिनर्तकीसलीलपदन्यासं, गृहीताष्टमंगलदेवीसहस्रपुरोगानं, देवप्रतीहारदरापसार्यमाणक्षुद्रामरगणं, आत्म और स्वर्गसे अवतरित होते समयकी विशिष्ट पूजाको प्राप्त जिनदेवके जन्माभिषेक कल्याणको देखता है। वह जन्मोत्सव लोक रूपी घरमें छिपे हुए अन्धकारके फैलावको दूर करने में तत्पर होता है । अमृतपान की तरह समस्त प्राणियोंको आरोग्य देने वाला है। देवांगनाओंके नृत्यकी तरह समस्त जगत्को आनन्दमयी है, प्रियवचनकी तरह मनको प्रसन्न करता है । पुण्यकर्मकी तरह अगणित पुण्यको देने वाला है । लक्ष्मीरूपी परिचारिकाओं के द्वारा बड़े आश्चर्य और शीघ्रता के साथ इसे देखा जाता है। गुह्यक जाति के देवोंके द्वारा बरसाये गये अनेक प्रकारके सुगन्धित पुष्पोंकी गन्ध पर मंडराने वाले भौंरों की गंजनके कोलाहलसे पर्ण होता है। निरन्त नरन्तर बजने वाली मंगल भेरी और वाद्योंकी ध्वनिसे समस्त भुवन भर जाता है। देवांगनाओंके नृत्यको जीतनेकी इच्छासे ही मानों महलोंके शिखर पर पाँच वर्णकी पताका रूपी नृत्यांगनाएँ नाचती हैं । भगवान्के जन्मके समय इन्द्रके सिंहासनके कम्पनसे भयभीत हुई नवजन्म वाली देवांगनाएं जल्दीसे इन्द्रके कण्ठसे लिपट जाती हैं तब इन्द्रका मुख प्रेमसे खिल उठता है। तब देव परिवार जल्दीसे उठकर बड़े आदरसे इन्द्रकी आज्ञा सुनता है। भेरीके शब्दको सुनकर इन्द्रादि प्रमुख सब देवगण एकत्र होते हैं. परस्परके संघर्षसे उत्तर वैक्रियिक शरीरको धारण करने वाले देवोंकी सेनासे आकाश मार्ग व्याप्त हो जाता है। जन्माभिषेकके समय जिन बालकको लानेके लिये आई हुई इन्द्राणीके नूपुरोंके शब्दसे चकित हुई हँसीके विलाससे राजमन्दिरका आँगन शोभित होता है। ऐरावतसे उतरकर इन्द्र अपनी वज्रमयी भुजायें फैला देता है । देवताओंके हाथोंके प्रहारसे ढोल और भेरीके शब्दके साथ मिला सिंहनाद विशाल दिशाओंको बधिर कर देता है। गमन करते समय बजाये जाने वाले अनेक नगारोंका गम्भीर शब्द होता है। इन्द्रोंका समूह अपूर्ण चन्द्रमाकी किरणोंके समान शुभ चमरोंको दक्षतापूर्वक ढोरता है। इन्द्राणियाँ बालक जिनका मुख देखनेके लिये उत्कण्ठित होती हैं। श्वेत छत्ररूपी मेघोंकी घटाओंसे आकाश ढक जाता है। पताकायें बिजुलीकी तरह प्रतीत होती हैं । इन्द्रनीलमय सीढ़ियोंकी तरह देवसेना गमन करती है । ऐरावतके दाँतों पर बने सरोवरोंमें खिले कमलके पत्रों पर नर्तकियाँ लीलाके साथ पद निक्षेप करती हुई नृत्य करती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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