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________________ ६३४ भगवती आराधना 'भोगरवीए' भोगरत्याः। "णियवो णासों नियतो विनाशः । 'विग्घा यति' विघ्नाश्च भवन्ति । 'अविबहुगा' अतीव बहवः । 'अज्झप्परदीए' अध्यात्मरतेः । 'सुभाविदाए' सुष्ठु भावितायाः । 'णासो' नाशो, न विद्यते । “विग्धा वा' विघ्ना वा न सन्ति । नियतं नश्वरतयाऽनश्वरतया वा बहु विघ्नतया, निर्विघ्नतया च तयो रत्योर्वेषम्यमिति भावः ॥१२६४॥ इन्द्रियसुखं शत्रुतया सङ्कल्पनीयं तथा च तत्रादरो जन्तोनिवृतेः अतो अतीन्द्रियसुखत्वमेव वीतरागत्वहेतुके संवरे इति मत्वा सूरिचूलामणिराह दुक्ख उप्पादिता पुरिसा पुरिसस्स होति जदि सत्तू । अदिदुक्ख कदमाणा भोगा सत्तू किहुं ण हुंती ॥१२६५।। 'दुक्ख उप्पादिता' दुःखमुत्पाद्य । 'जदि सत्तू होति' यदि शत्रवो भवन्ति । 'पुरिसा पुरिसस्स' पुरुषाः पुरुषस्य । 'अदिदुक्ख कुणमाणा भोगा' अतीव दुःखं कुर्वन्तो भोगा इन्द्रियसुखानि । 'किप सत्तू ण हुति' कथं शत्रवो न भवन्ति भवन्त्येवेति । कथं भोगानां दुःखहेतुता एवं मन्यते ? इन्द्रियसुखं नाम स्त्रीवस्त्रगन्धमालादिपरद्रव्यसन्निधानजन्यं । तच्च स्त्र्यादिकं दुर्लभतमं निर्द्रविणस्य, तेन तदर्थ कृष्यादिकर्मणि प्रयतितव्यं । ततो महानायासः । इहैव भवानुगामी दुःखनिमित्तं च कर्म हिंसादिषु प्रवर्तमानोऽर्जयति । तदिमं दुरन्ते संसाराम्भोधौ निमज्जयति । तत्र च निमग्नेन कतमं दुःखमनेन नावाप्यते ॥१२६५।। शत्रुतमा भोगा इति कथयति इहई परलोगे वा सत्तू मित्तत्तणं पुणमुर्वेति । इहई परलोगे वा सदावि दुःखावहा भोगा ।।१२६६॥ 'इहई' अस्मिन्नेव जन्मनि । 'परलोगे वा' परजन्मनि वा । 'सत्तू' शत्रवः । 'मित्तत्तणं' मित्रतां । गा०-भोग रतिका नियमसे विनाश होता है तथा उसमें विघ्न भी बहुत हैं । किन्तु अच्छी रीतिसे भावित अध्यात्म रतिका न विनाश होता है और न उसमें कोई विघ्न आते हैं। इस तरह भोगरति नियमसे नश्वर और बहुत विघ्न वाली है तथा अध्यात्मरति निर्विघ्न और अविनाशी है इसलिए दोनोंमें कोई समानता नहीं है ।।१२६४|| ___ आचार्य कहते हैं कि इन्द्रिय सुखको शत्रुके समान मानो। ऐसा करनेसे उनमें जो आदरभाव है वह दूर होगा। तथा अतीन्द्रिय सुख ही वीतरागताका कारण होनेसे संवर रूप है ___ गा०-टी०-यदि दुःख देने वाले पुरुष पुरुषके शत्रु होते हैं तो अति दुःख देने वाले भोग अर्थात् इन्द्रिय सुख शत्रु क्यों नहीं हैं ? अवश्य हैं । भोग दुःखके कारण क्यों हैं यह विचार करें। स्त्री, वस्त्र, गन्धमाला आदि परद्रव्यके मिलनेसे जो होता है उसे इन्द्रिय सुख कहते हैं। वह स्त्री आदि धनहीनके लिए अत्यन्त दुर्लभ हैं । अतः धनकी प्राप्तिके लिए कृषि आदि कर्म करना चाहिए। उससे महान् आरम्भ होता है । हिंसा आदिमें प्रवत्ति करने में इसी भव तथा परभवमें दुःख देने वाले कर्मका उपार्जन करता है। और वह कर्म उसे ऐसे संसार समुद्र में डुबाता है जिसका पार पाना अत्यन्त कठिन है । उस संसार समुद्र में डूबकर यह जीव कौन दुःख नहीं भोगता ॥१२६५।। आगे कहते हैं कि भोग सबसे बड़े शत्रु हैंगा०-इस जन्ममें अथवा परजन्ममें शत्रु शत्रुताको छोड़कर मित्र बन जाते हैं। अर्थात् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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