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________________ विजयोदया टीका 'पुणमुर्वेति' पुनढौंकन्ते । शत्रवः शत्रुतामपि जाः । कार्यवशात्, उपकारातिशयसम्पादनान्मित्रतां वा यान्ति च । वाचा न स्फुटतरा । इहैव तथा परलोके वा 'सव्वदा दुक्खावहा भोगा' सर्वदा दुःखावहा भोगाः। ततः शत्रुतमा इति भावनीयं ॥१२६६।। एगम्मि चेव देहे करेज्ज दुक्खं ण वा करेज्ज अरी । भोगा से पुण दुक्खं करंति भवकोडिकोडीसु ॥१२६७|| 'एगम्मि चेव देहे' एकस्मिन्नेव देहे । 'करेज्ज दुक्ख ण वा करेज्ज अरी' कुर्याद्दुःखं न वा शत्रुः । 'भोगा पुण' भोगा पुनः । 'से' तस्य । 'दुःक्ख करंति' दुःखं कुर्वन्ति । 'भवकोडिकोडीसु' अनन्तेषु भवेषु । एवं भोगदोषानवेत्यात्र निदानं त्वया न कायं इत्युपदिष्टं सूरिणा ॥१२६७।। मधुमेव पिच्छदि जहा तडिओलंबो ण पिच्छदि पपादं । तह सणिदाणो भोगे पिच्छदि ण हु दीहसंसारं ।।१२६८॥ 'मधुमेव पिच्छदि' मध्येव पश्यति यथा तटेऽवलम्बमानः । 'ण पिच्छवि' न प्रेक्षते । 'पपाद' प्रपातमात्मनः । 'तह' तथा 'सणिदाणो' निदानसहितः । 'भोगे पिच्छदि' भोगान्प्रेक्षते । 'ण हु पेच्छदि' नैव प्रेक्षते । . 'दोहसंसारं' दीर्घससारं ॥१२६८॥ जालस्स जहा अंते रमंति मच्छा भयं अयाणंता । तह संगादिसु जीवा रमंति संसारमगणंता ॥१२६९॥ 'जालस्स' जालस्य । 'अंते' मध्ये । 'जहा मच्छा रमंति' यथा मत्स्या रमन्ते । 'भयमयाणंता' भयमनवबुध्यमानाः । 'तह संगादिसु' तथा परिग्रहादिषु । 'जीवा रमंति' जीवा रमन्ते । 'संसारमगणंता' संसारमगणयन्तः ॥१२६९॥ दुक्खेण देवमाणुसभोगे लद्धण चावि परिवडिदो । णियदमदीदि कुजोणी जीवो सघरं पउत्थो वा ।।१२७०॥ उपकार आदि करनेसे प्रभावित होकर शत्रु मित्र बन जाते हैं वह भी केवल कहनेके लिए नहीं किन्तु खुले दिलसे मित्र बन जाते हैं । किन्तु भोग इस जन्ममें और परजन्ममें सदा ही दुःखदायी होते हैं । इसलिए वे शत्रुसे भी बड़े शत्रु हैं ॥१२६६।। गा०-शत्रु एक ही भवमें दुःख दे या न भी दे । किन्तु भोग तो अनन्त भवोंमें दुःख देते हैं ॥१२६७|| ___ इस प्रकार भोगोंके दोष जानकर हे क्षपकः तुम्हें निदान नहीं करना चाहिए, ऐसा आचार्य उपदेश देते हैं गा-इस प्रकार जैसे कुएंकी दीवारके एक ओर लटका हुआ मनुष्य टपकने वाले मधुकी बूंदोंको ही देखता है किन्तु अपने गिरनेको नहीं देखता । वैसे ही निदान करने वाला भोगोंको तो देखता है किन्तु अपने दीर्घ संसारको नहीं देखता ॥१२६८॥ गा०-जैसे मत्स्य भयको न जानते हुए जालके मध्यमें उछलते-कूदते हैं, वैसे ही जीव संसारकी चिन्ता न करके परिग्रह आदिमें आनन्द मानते हैं ॥१२६९।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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