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________________ ६३६ भगवती आराधना 'दुक्खेण लद्ध ण' क्लेशेन लब्ध्वा । 'देवमाणुसभोगें' दैवान्मानुषांश्च भोगान् । 'परिवडिदो' परिपतितः प्रच्युतस्ततो भोगाज्जीवः । 'कुजोणी णियदमदीदि' कुत्सितां योनि नियतमुपैति । किमिव ? 'सघरं' स्वगृह, 'पउत्थो वा' प्रवासीव ॥११७०॥ जीवस्स कुजोणिगदस्स तस्स दुक्खाणि वेदयंतस्स । किं ते करंति भोगा मदोव वेज्जो मरंतस्स ।।१२७१।। 'जीवस्स कुजोणिगदस्स' कुयोनिगतस्य जीवस्य । 'दुक्खाणि वेदयंतस्स' दुःखानि वेदयमानस्य । “कि ते करेंति भोगा' किं ते कुर्वन्ति भोगाः स्त्रीवस्त्रादयः । नैव किञ्चिदपि दुःखलवमपनेतुं क्षमाः । 'मवोव वेज्जो' वैद्यो मृतो यथा । 'मरंतस्स' म्रियमाणस्य न किञ्चित्कतुं क्षमः ॥१२७१॥ जह सुत्तबद्धसउणो दूरंपि गदो पुणो व एदि तहिं । तह संसारमदीहि हु दूरंपि गदो णिदाणगदो ॥१२७२॥ 'जह सुत्तबद्धसउणो' यथा सूत्रेण दीर्पण बद्धः पक्षी । 'दूरंपि गदो' दूरमपि गतः । 'पुणो एदि तहि' पुनरप्येति तमेव देशं । 'तह संसारमदीदि खु' संसारशब्दात्परः खु शब्दो द्रष्टव्यः, ततोऽयमर्थः-संसारमेवाधिगच्छतीति । 'दूरं पि गदो' महद्धिक स्वर्गादिस्थानमुपगतः । "णिदाणगदो' निदानं परभवसुखातिशये मनःप्रणिधानं गतः ॥१२७२॥ __ कश्चिद्रुद्धः कारागृहे इयता कालेन तव द्रविणं दास्यामि भवदीयमेव तावत्प्रयच्छेति गृहीत्वा द्रव्यं रोधकेभ्यः प्रदाय स्वगृहे सुखं वसन्नपि पुनर्यथा तरुत्तमणैर्धार्यते तथव निदानकारी स्वकृतेन पुण्येन परिप्राप्तस्वर्गोऽपि पुनरधः पततीति निगदति इन्द्रिय सुख नियमसे कुयोनियों में भ्रमण करनेका मूल कारण है क्योंकि अत्यधिक रागद्वेषकी उत्पत्तिमें निमित्त है। उन कुयोनियोंमें उत्पन्न होकर नाना प्रकारके दुःखोंका अनुभव करने वाले जीवके दुःखोंको, देवगति आदिके भोग वस्त्र अलंकार भोजन आदि दूर करने में समर्थ नहीं हैं, ऐसा आगे कहते हैं गा०-जैसे देशान्तरमें गया व्यक्ति सर्वत्र घूमकर अपने घरको ही जाता है वैसे ही बड़े कष्टसे प्राप्त देव और मनुष्य सम्बन्धी भोगोंको भोगकर उन भोगोंके नष्ट हो जाने पर नियमसे कुयोनिमें जाता है ।।१२७०।। गाo-जैसे मरा हुआ वैद्य मरते हुएकी रक्षा नहीं कर सकता। वैसे ही कुयोनिमें जाकर उस दुःख भोगते हुए जीवका स्त्री वस्त्र आदि भोग क्या कर सकते हैं ? वे उसका किश्चित् भी दुःख दूर नहीं कर सकते ॥१२७१॥ गा-जैसे लम्बे धागेसे बंधा पक्षी सुदूर जाकर भी पुनः वहीं लौट आता है। वैसे ही परभव सम्बन्धी विषय सुखमें मन लगाने वाला निदानो महान् वृद्धिसे सम्पन्न स्वर्गादि स्थानोंमें जाकर भी संसारमें ही लौट आता है ॥१२७२॥ जैसे कोई जेलखानेमें पड़ा व्यक्ति, मैं इतना समय बीतने पर तुम्हारा धन तुम्हें लौटा दूंगा तुम मुझे धन दो, ऐसा वादा करके धन लेता है और वह धन जेलके रक्षकोंको देकर अपने घरमें सुखपूर्वक निवास करता है किन्तु उसे पुनः कर्ज देने वाले पकड़ लेते हैं उसी प्रकार निदान करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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