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________________ ३२ भगवती आराधना पपत्तेः । त्रयाणामपि कर्मापायनिमित्ततास्ति वा न वा? यदि नास्तीत्युच्यते सूत्रविरोधः 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इति सूत्रमवस्थितम् । अथोपायतास्ति ? परार्थतया गुणत्वं त्रयाणामिति का प्रधानता चारित्रस्य ? ज्ञानदर्शने चारित्रार्थे चारित्रं तु न तदर्थमिति न यक्तं वक्तं ज्ञानदर्शनयोः साध्यत्वात्तदुपायतया चारित्रस्य चारितं तदर्थमिति तस्य किमित्यप्रधानता न भवति ? न हि चारित्रमंतरेण क्षायिकं ज्ञानं, क्षायिक वीतरागसम्यक्त्वं चोपजायते । तस्मात्पूर्वोक्त एव उत्तरप्रबंधक्रमः । इदं सूत्रं यथाख्यातचारित्रस्वरूपं तत्फलं च गदितं आयातम् । णाणस्स दंसणस्स य सारो' सारशब्दोऽत्रातिशयितगुणवचनः । तथा प्रयोगः "पढमंचि य विगलियमच्छरेण सुयणेण गहियसारम्मि । वोस मोत्तूण खलो गेलउ कम्वम्मि कि अण्णं ॥" [ ] प्रथममेव साधुजनेन विगलितमात्सर्येण गृहीतेऽतिशयितगुणे काव्ये दोषं मुक्त्वा खलः किमन्यद्गृह्णाति इति गाथार्थः ।। ज्ञानदर्शनयोरतिशयितरूपं किं तन्मोहनीयजन्यकलंकरहितं, 'चरणं' चारित्रं । 'हवेत् । 'जहाखादं' यथाख्यातं। तथा चोक्तं "चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो सम्मोत्ति णिहिट्ठो ॥ मोहक्खोहविहूणो परिणामो अप्पणो य समो।" [प्रव० सा० १७] इति । "मोहो द्विविधो दर्शनमोहश्चारित्रमोहश्च । तत्र दर्शनमोहजन्यं अश्रद्धानं शंकाकांक्षाविचि प्रश्न करने पर चारित्रकी प्रधानता बतलानेके लिये यह गाथासूत्र कहा है। किन्तु यह अयुक्त है क्योंकि 'ज्ञान और दर्शनका सार यथाख्यात चारित्र है' ऐसा कहने पर 'चारित्र ज्ञान और दर्शनसे प्रधान है' ऐसी प्रतीति नहीं होती । प्रश्न होता है कि ये तीनों कर्मों के विनाशमें निमित्त है या नहीं ? यदि कहते हो नहीं हैं तो सूत्र में विरोध आता है क्योंकि 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र मोक्षका मार्ग है' ऐसा सूत्र है। यदि तीनों मोक्षके उपाय हैं तो परार्थ-परके लिये होनेसे तीनों गौण हो जाते हैं तब चारित्रको प्रधानता कैसी ? यदि कहोगे कि ज्ञान और दर्शन चारित्रके लिये हैं चारित्र ज्ञानदर्शनके लिये नहीं है, तो ऐसा कहना युक्त नहीं है क्योंकि साध्य ज्ञान और दर्शन हैं । उनकी सिद्धिका उपाय चारित्र है। अतः चारित्र ज्ञान दर्शनके लिये है तब वह अप्रधान क्यों नहीं हुआ ? चारित्रके बिना न तो क्षायिक ज्ञान होता है और न. क्षायिक वीतराग सम्यक्त्व उत्पन्न होता है । इसलिये जो पूर्वमें उत्तरगाथाके क्रमके सम्बन्धमें कहा है वही युक्त है। यह गाथासूत्र यथाख्यात चारित्रका स्वरूप और उसका फल कहनेके लिये आया है। 'णाणस्स दसणस्स य सारो' यहाँ सार शब्द सतिशय गुणका वाचक है । इस अर्थमें उसका प्रयोग देखा जाता है । किसी कविने कहा है-प्रथम ही मात्सर्य भावसे रहित साधुजनोंके द्वारा काव्यका सार ग्रहण कर लिये जाने पर दोषके सिवाय दुर्जन और क्या ग्रहण करें। यहाँ 'सार' शब्दका प्रयोग सातिशय गुणके अर्थ में ही किया गया है । प्रश्न होता है कि ज्ञान और दर्शनका सातिशय रूप क्या है ? तो वह है मोहनीयसे उत्पन्न हाने वाले कलंकसे रहित यथाख्यात चारित्र । कहा है ___निश्चयसे चारित्र धर्म है और धर्म समभावको कहा है । तथा मोह और क्षोभसे रहित आत्माका परिणाम सम है । मोहके दो भेद हैं-दर्शनमोह और चारित्रमोह। उनमेंसे दर्शनमोहसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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