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________________ विजयोदया टीका ३१ परेषां तपोविनयः, तं विना सुतपसोऽभावात् तपसः परिकरता ऽस्या सपरिकरं हि तपश्चारित्रस्य परिकरः । उपयोगो वा नान्या गतिरस्ति' (?) मन्यते । 'असढं चरंतस्स' शाठ्यमंतरेण वर्तमानस्य भवेत्तथा च चतुर्विधा, द्विविधा, एकविधा, वा आराधना स्यात् कस्मान्न निरूप्यते । पुरुषो हि प्रेक्षापूर्वकारी प्रयोजनायत्तचेष्टः सति प्रयोजने तत्साधनाय प्रयतते नान्यथा, तत्कथमियमाराधना व्याख्या प्रयोजिका श्रवणस्येत्याशंकायां, निर्वाणसुखस्याव्याबाधात्मकस्य पुरुषार्थस्योपायत्वप्रदर्शनेन आराधनाव्याख्या तदथिनामुपयोगिनी इत्येतत्प्रतिपादनायोत्तरप्रबंधः । अथवा व्यावणितविकल्पा या आराधना तस्यां चेष्टा कर्तव्येत्येतदाख्यानायोत्तरसूत्राणि, तथा चोपसंहारः 'कादव्वा खु तदत्थं आदहिदगवेसिणा चेछा' इति ॥ अन्येऽत्र व्याचक्षते ज्ञानदर्शनचारित्रेषु किं प्रधानमिति चोये चारित्रप्राधान्यख्यापनायोत्तरसूत्रमिति तदयुक्तम् णाणस्स देसणस्स य सारो चरणं हवे जहाखादं । चरणस्स तस्स सारो णिव्वाणमणुत्तरं भणियं ॥११॥ 'णाणस्स दसणस्स य सारो चरणं जहाखादं' इत्युक्त ज्ञानदर्शनाभ्यां प्रधानं चारित्रं इति प्रतीतेरनुअन्तर्भाव चारित्रमें होता है। विशिष्ट तपस्वियोंमें और तपमें भक्ति तथा दूसरोंकी आसादना न करना तपविनय है। उसके बिना सम्यक् तप नहीं हो सकता। अतः तपविनय तपका परिकर है। और अपने परिकरके साथ तप चारित्रका परिकर है। उसके बिना गति नहीं है । जो कपट त्याग कर ऐसा करता हैं उसीके यह तप होता है । इस प्रकार आराधनाके चार, दो और एक भेद हैं। भावार्थ-चारित्र वही धारण करता है जो सुखको त्याग देता है। चारित्रमें उद्यम करना वाह्य तप है । इस तरह बाह्य तप चारित्रका परिकर है उसकी सहायक सामग्री है । और चारित्ररूप परिणाम अन्तरंग तप है । अन्तरंग तपके भेद प्रायश्चित्त आदि पाप प्रवृत्तियोंको दूर करते हैं अतः तप चारित्रसे भिन्न नहीं है ।।११।। पुरुष सोच-विचारकर काम करता है । उसकी चेष्टा प्रयोजनके अधीन होती है। प्रयोजन होने पर उसकी सिद्धिके लिये वह प्रयत्न करता है। प्रयोजन न होने पर नहीं करता। तब यह आराधनाका व्याख्यान कैसे उसका प्रयोजक है ? ऐसी आशंका होने पर आचार्य कहते हैं बाधारहित मोक्ष सुख पुरुषार्थ है वह पुरुषका प्रयोजन है। जो मोक्ष सुखके अभिलाषी हैं उनको उसका उपाय बतलानेके लिये आराधनाका कथन उपयोगी है। यह बतलानेके लिए आगेका कथन करते हैं । अथवा जिस आराधनाके भेदोंका कथन किया है उसमें चेष्टा करना चाहिये यह कहनेके लिये आगेका कथन है । इसीलिये ग्रन्थकारने उपसंहारमें कहा है कि आत्महितके अन्वेषकको उसके लिये चेष्टा करना चाहिये गा०–ज्ञानका और दर्शनका सार यथाख्यात चारित्र होता है। उस यथाख्यात चारित्रका सार सर्वोत्कृष्ट निर्वाण कहा है ॥ ११ ॥ टी०–अन्य व्याख्याकार कहते हैं कि ज्ञान, दर्शन और चारित्रमें कौन प्रधान है ऐसा १. नान्यथास्तिता-आ० मु० । २ प्रयोजिता-आ० मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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