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________________ ३० भगवती आराधना तपांसि चारित्रप्रारंभं प्रति परिकरतामुपयान्तीति । तथा च वक्ष्यति 'बाहिरतवेण होदि खु सव्वा सुहसीलदा परिच्चत्ता' इति । तथा स्वाध्यायश्रुतभावना पंचविधा तत्र वर्तमानश्चारित्रे परिणतो भवति । तथा च वक्ष्यति 'सुदभावणाए णाणं वंसणतवसंजमं च परिणमदि' त्ति । परिणाम एव उपयोगः । 'कृतातिचारजुगुप्सापुरःसरं वचनमालोचनेति' अकर्तव्यपरिहरणोपयोगः कथं न चारित्रं ? कृतातिचारस्य यतेस्तदतिचारपराङ्मुखता योगत्रयेण हा दुष्टं कृतं चिंतितमनुमतं चेति परिणामः प्रतिक्रमणम् । उभयं चरणोपयोगः । एवमतिचारनिमित्तद्रव्यक्षेत्रादिकान्मनसा अपगतिस्तत्र अनादृतिविवेकः । इति उपयोगता विवेकस्य दुस्त्यजशरीरममत्व निवृत्तिर्ममेदं शरीरं न भवति नाहमस्येति भावना सा च परिग्रहपरित्यागोपयोग एवेति चारित्रम् । तपसोऽनशनादेश्चारित्रपरिकरतोक्तव । सातिचारं चारित्रमचारित्रमेवेति बद्धया निश्चित्यात्मनो. न्यनतापादन नवन्दनादिकासु असंयमपरिहारेण वृत्तश्चारित्रपरिकरः । पुनः प्रव्रज्यादानमपि चारित्रोपयोग एवेति । विनयस्तु पंच प्रकारः ज्ञानदर्शनविनययोनिदर्शनपरिकरतया तदुपयोगरूपतया च ज्ञानदर्शनाभ्यामभेदात्तद्वदेव चारित्राराधनांतर्भावः । . इन्द्रियविषयस्य रागद्वेषयोः कषायाणां च परित्यागः, अयोग्यवाक्कायक्रियायास्त्यागः, ईर्यादिषु निरवद्या च वृत्तिश्चारित्रोपयोग एवेति चारित्रे विनयस्यान्तर्भावः । तपोऽधिके तपसि च भक्तिः, अनासादना च वाले जिनदेवने कहा है । जो सुखको त्यागता है वही चारित्रमें प्रयत्नशील होता है, जिसका चित्त सुखमें आसक्त है वह चारित्र धारण नहीं कर सकता। अतः बाह्य तप चारित्रको प्रारम्भ करनेमें सहायक होते हैं। आगे कहेंगे-'वाह्य तपसे समस्त सुखशीलता छूट जाती है'। तथा स्वाध्यायके पाँच भेद पाँच श्रुत भावनारूप हैं। जो उसमें प्रवृत्ति करता है वह चारित्रमें प्रवृत्ति करता है। आगे कहेंगे-'श्रुतभावनासे ज्ञान, दर्शन, तप और संयमरूप परिणत होता है।' परिणामका ही नाम उपयोग है। किये हए दोषोंके प्रति ग्लानि पर्वक जो वचन होता है वह आलोचना है। तव अकर्तव्यके त्यागमें जो उपयोग होता है वह चारित्र क्यों नहीं है। जिस साधुने अपने व्रतोंमें दोष लगाया है उसका उन दोषोंसे विमख होकर. हाँ. मैंने बरा किया. या बरा विचारा या उसमें अनुमति दी, इस प्रकारके परिणामोंको प्रतिक्रमण कहते हैं। आलोचना और प्रतिक्रमणको उभय कहते हैं । अतिचारमें निमित्त द्रव्य, क्षेत्र आदिका मनसे हटाना, उनमें अनादर भावका होना विवेक प्रायश्चित्त है । इस प्रकार विवेकको उपयोगिता है। जिसको छोड़ना कठिन है उस शरीरसे ममत्व न करना 'यह शरीर मेरा नहीं है, न मैं इसका हूँ' इस प्रकारकी भावना व्युत्सर्ग है वह भी परिग्रहके त्यागरूप उपयोग ही है अतः चारित्र है। ____ अनशन आदि तप चारित्रके परिकर हैं-उसके सहायक हैं, यह पहले कहा ही है सदोष चारित्र अचारित्र ही है ऐसा बद्धिके द्वारा निश्चित करके आत्मामें पूर्णताका लाना, खड़े होना, वन्दना आदि क्रियाओंमें असंयमका परिहार करते हुए प्रवृत्त होना, ये सब भी चारित्रका परिकर है। दोष लगाने पर पुनः दीक्षा ग्रहण करना भी चारित्रमें उपयोग ही है । विनयके पाँच भेद हैं। उनमेंसे ज्ञानविनय और दर्शनविनय ज्ञान और दर्शनके परिकर होनेसे तथा ज्ञान और दर्शनमें उपयोगरूप होनेसे ज्ञान और दर्शनसे अभिन्न हैं अतः ज्ञान और दर्शनकी तरह उनका अन्तर्भाव चारित्राराधनामें होता हैं। ___ इन्द्रियोंके विषयोंमें राग द्वेषका तथा कषायोंका त्याग, अनुचित वचन और कायकी क्रियाका त्याग, तथा ईर्या समिति आदिमें निर्दोष प्रवृत्ति चारित्रोपयोगरूप होनेसे चारित्रविनयका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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