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________________ भगवती आराधना व्याघ्रादिषु विस्रम्भगमनात्पापीयो विस्रम्भगमनं वनितास्विति कथयत्युत्तरगाथा । 'वग्घादीया' व्याघ्रविषादयः पूर्वसूत्रनिर्दिष्टा: । 'दोसं' दोषं । 'नरस्य' नरस्य । 'ण करिज्जण्हू' न कुर्युः । 'जं कुर्णादि महादोसं ' यं करोति महान्तं दोषं । 'दुट्ठा महिला' दुष्टा वनिता । 'मणुस्सस्स ' मनुष्यस्य ॥ ९४७ ॥ ५३२ पाउसकालणदीवोव्व ताओ णिच्चंपि कलुसहिदयाओ । धणहरणकदमदीओ चोरोव्व सकज्जगुरुयाओ || ९४८ ॥ 'पाउसका लणदीवोव्व' प्रावृट्कालस्य नद्य इव । 'ताओ' ताः । 'णिच्चं पि' नित्यमपि । 'कलुस्सहिदयाओ' कलुषहृदयाः । स्त्रीषु हृदयशब्देन चित्तमुच्यते । नदीष्वभ्यन्तरं । रागेण, द्वेषेण, मोहेन, ईयया, असूयया, मायया वा कलुषीकृतमेव चित्तं तासां । 'चोरोग्व' चोर इव । 'सकज्जगुरुगाओ' स्वकार्ये गुर्व्यः । 'धणहरणकदमवीओ' धनापहरणे कृतबुद्धयः । चौरा अपि कथमस्माभिरिदमेतदीयमात्मसात्कृतं भवतीति कृतबुद्धयः । ता अपि मधुरवचनेन रतिक्रीडानुकूलतया वा पुरुषस्य द्रव्यमाहत्तुमुद्यताः ॥ ९४८ ॥ रोगो दारिद्द वा जरा व ण उवेइ जाव पुरिसस्स । ताव पिओ होदि णरो कुलपुत्तीए वि महिलाए ।। ९४९ । 'रोगो दारिद्दं वा' व्याधिर्दारिद्र्यं वा । जरा वा । 'ण उवदि' न ढौकते यावत्पुरुषं । 'ताव पिओ होवि ' तावत्प्रियो भवति नरः । 'कुलपुत्तीए वि' कुलपुत्र्या अपि । महिलाए कान्तायाः । कुलपुत्रीषु वान्याः " किमस्ति साध्यो हि प्रायेण कुलपुत्र्यः पतिमेव देवतेति मन्यमानाः प्रियं त्यजन्तीति ॥ ९४९ ॥ जुण्णो व दरिदो वा रोगी सो चेव होइ से वेसो | णिप्पीलिओ उच्छू मालाव मिलाय गदगंधा ॥ ९५० ॥ व्याघ्रादिमें विश्वास करनेकी अपेक्षा स्त्रियों में विश्वास करना अधिक खतरनाक है यह कहते हैं गा० To - पूर्व गाथा में कहे गये व्याघ्र आदि मनुष्यका उतना अहित नहीं करते, जितना महान् अहित दुष्ट स्त्री करती है ||९४७ || गा० - टी० - वर्षाकालकी नदियोंकी तरह स्त्रियोंका हृदय भी नित्य कलुषित रहता है । स्त्रियोंके पक्ष में हृदय शब्दका अर्थ चित्त है और नदियोंके पक्ष में अभ्यन्तर है। राग, द्वेष, मोह, ईर्ष्या, परनिन्दा अथवा मायाचार से स्त्रियोंका चित्त सदा कलुषित रहता है । चोरकी तरह वे भो अपना कार्य करनेमें तत्पर रहती है और उनकी बुद्धि मनुष्यका धन हरनेमें रहती है। चोर भी यही विचारते रहते हैं कि कैसे हम इनका धन हरण करें। स्त्रियाँ भी मोठे वचनोंसे अथवा रतिक्रीड़ा में अनुकूल बनकर पुरुषका द्रव्य हरने में तत्पर रहती है ॥ ९४८॥ Jain Education International गा - कुलीन महिलाएँ प्रायः पतिको ही देवता मानकर अपने प्रियको छोड़ देती हैं । किन्तु कुलीन नारियोंका भी मनुष्य तभी तक प्रिय रहता है जब तक उसे रोग या दारिद्रय, बुढ़ापा नहीं सताता ||९४९|| १. वाच्यः ज० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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