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________________ विजयोदया टीका ८२५ 'कम्मरस ह हवेज्ज परिमोक्खो' अननुभतफलस्य कर्मणो नैव कस्यचित् मोक्षो भवति इति । ततः फलं प्रदायापयाति । एतेन विपाकनिर्जरोक्ता 'होज्ज व तस्स कम्मस्स विणासो' भवेद्वा तस्य कर्मणो विनाशः। 'तवग्गिणा डज्झमाणस्स' तपोऽग्निना दह्यमानस्य । एतेन कृतं कर्म तत्फलमदत्वा न निवर्तत इत्येतन्निरस्तं ॥१८४४॥ डहिऊण जहा अग्गी विद्धंसदि सुबहुगंपि तणरासी । विद्धंसेदि तवग्गी तह कम्मतणं सुबहुगंपि ॥१८४५॥ 'डहिऊण जहा अग्गो' यथाग्निर्दग्ध्वा नाशयति महांतमपि तृणराशिं तथा तपोग्निः सुमहदपि कर्मतृणं विनाशयति ॥१८४५॥ तपसः कर्मविनाशनक्रममुपदर्शयत्युत्तरगाथा कम्मं पि परिण मिज्जइ सिणेहपरिसोसएण सुतवेण । तो तं सिणेहमुक्कं कम्मं परिसडदि धूलिव्व ॥१८४६॥ 'कम्मं पि परिणमिज्जदि' 'कर्माण्यपि अभावं नीयन्ते, केण ? 'सुतवेण' ज्ञानदर्शनचरणसहभाविना तपसा । 'सिणेहपरिसोसगेण' कर्मपुद्गलगतस्नेहपरिणामविशोषणकारिणा । 'तो' पश्चात् । स्नेहपरिणामविनाशोत्तरकालं । 'कम्म परिसडदि' कर्म परितोऽपयाति, "सिणेहमुक्कं' स्नेहमुक्तं धूलीव । दृश्यते हि स्नेहाबन्धमुपागतानां ततक्षते: परस्परतो वियोगः यथा जलेनैव पिण्डतागतानां सिकतानां शुष्के जले वियोगमापद्यमानता ॥१८४६॥ गा०-टी-जिस कर्मका फल नहीं भोगा गया है उसका विनाश नही होता । अतः कर्म फल देकर जाता है। इससे सविपाक निर्जराका स्वरूप कहा। सविपाक निर्जरा उन्हीं कर्मोंकी होती है जो अपना फल दे चकते हैं। किन्त तपकी अग्निमें जलकर ऐसे कर्मो का भी विनाश होता है जिन्होंने फल नहीं दिया है । इससे जो मत ऐसा मानते हैं कि किया हुआ कर्म बिना फल दिये नहीं जाता, उनका खण्डन होता है ॥१८४४॥ गा०-जैसे आग महान् भी तृणराशिको जलाकर खाक कर देती है। उसी प्रकार तपरूपी आग महान् भी कर्मरूपी तृणोंके ढेरको जलाकर नष्ट कर देती है ।।१८४५।। __ आगे तपसे कर्मो के विनाशका क्रम दिखलाते हैं गा०-टी०-ज्ञान, दर्शन और चारित्रके साथ होनेवाला तप कर्म-पुद्गलोंमें रहनेवाले स्नेह परिणामको सोख लेता है। अतः उससे कर्मों का अभाव होता है। क्योंकि कर्मों में रहनेवाले स्नेहपरिणामका विनाश होनेके पश्चात् स्नेहरहित धूलकी तरह कर्म नष्ट हो जाते हैं। देखा जाता है जो वस्तुएँ चिक्कणता गुणके कारण परस्परमें बँधी होती हैं, उनकी चिक्कणता नष्ट होनेपर वे परस्परमें अलग हो जाती हैं. जैसे जलके संयोगसे धूल बँध जाती है और जलके सूखने पर अलग-अलग हो जाती है। इसी प्रकार कषाय आदि रूप स्नेहके कारण जो कर्मपुद्गल जीवके साथ एकरूप होते हैं, तपके द्वारा कषायके चले जानेपर वे जीवसे पृथक् हो जाते हैं ॥१८४६॥ १. कर्मापि सूतवेण शोभनेन तपसाऽन्यथाभावं नीयन्ते । केण? ज्ञान आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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