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भगवती आराधना धादुगदं जह कणयं सुज्झइ धम्मतमग्गिणा महदा ।
सुज्झइ तवग्गि'धंतो तह जीवो कम्मधादुगदो ॥१८४७|| 'धादुगदं' यथा सुवर्णपाषाणगतं कनकं महताग्निना दह्यमानं शुध्यति, मलात् पृथग्भवति तथा जीवः कर्मधातुगतस्तपोऽग्निना दह्यमानः शुध्यति ॥१८४७॥ । यद्येवं तप एवानुष्ठातव्यं किं संवरेणेति शङ्का निराकरोति
तवसा चेव ण मोक्खों संवरहीणस्स होइ जिणवयणे।
ण हु सोत्ते पविसंते किसिणं परिसुस्सदि तलायं ।।१८४८|| 'तवसा चेव ग मोक्खो' तपसव न सर्वकर्मापायो भवति, संवरहीनस्य जिनवचने । स्रोतसि प्रविशति न जलादिकं कृत्स्नं परिशुष्यति ॥१८४८॥
एवं पिणद्धसंवरवम्मो सम्मत्तवाहणारूढो ।
सुदणाणमहाधणुगो झाणादितवोमयसरेहि ।।१८४९॥ ‘एवं पिणद्धसंवरवम्मो' एवं पिनद्धसंवरकवचः, सम्यक्त्ववाहनारूढः, श्रुतज्ञानचापधरः, ध्यानादितपोमयशरैः ॥१८४९॥
संजमरणभूमीए कम्मारिचमू पराजिणिय सव्वं ।
पावदि संजमजोहो अणोवमं मोक्खरज्जसिरिं ॥१८५०॥ 'संजमरणभूमीए' संयमयुद्धाङ्गणे कर्मारिचमू सर्वामभिभूय प्राप्नोति संयतयोधः अनुपमा मोक्षराज्यश्रियं । निर्जरा ॥१८५०॥
गा०-जैसे सुवर्ण पाषाणको महान् अग्निसे फूंकने पर उसमेंसे सोना अलग हो जाता है । उसी प्रकार तपरूपी आगसे तपानेपर कर्मरूपी धातुसे घिरा हुआ जीव शुद्ध हो जाता है ।।१८४७।।
इस परसे कोई शंका करता है कि यदि तपसे जीव शुद्ध होता है तो तप ही करना चाहिए, संवरकी क्या आवश्यकता है ? इसका उत्तर देते हैं
गा० -जिनागममें संवरके बिना केवल तपसे ही सब कर्मो का विनाश नहीं कहा है। क्योंकि यदि तालाबमें जल आता रहता है तो तालाबको पूर्णरूपसे सुखाया नहीं जा सकता ॥१८४८॥
गा०-अतः जिसने संवररूप कवच धारण किया है, जो सम्यक्त्वरूपी रथपर सवार है, और श्रुतज्ञानरूपी धनुष लिये हुए है वह संयमरूपी योद्धा संयमरूपी रणभूमिमें ध्यान आदि तपोमय बाणोंके द्वारा समस्त कर्मरूपी शत्रुओंकी सेनाको पराजित करके मोक्षरूपी अनुपम राज्यलक्ष्मीको प्राप्त करता है ।।१८५०॥
निर्जरानुप्रेक्षाका कथन समाप्त हुआ।
१. धम्मो तह -अ० आ० ।
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