SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 894
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विजयोदया टीका ८२७ धर्मगुणानुप्रेक्षणायोच्यते जीवो मोक्खपुरक्कडकल्लाणपरंपरस्स जो भागी। भावेणुववज्जदि सो धम्मं तं तारिसमुदारं ॥१८५१॥ 'जीवो मोक्खपुरक्कडकल्लाणपरपरस्स जो भागो' यो जीवः मोक्षावसानकल्याणपरंपराया भाजनभूतः । स धर्म भावेन प्रतिपद्यते, तं तादृशमुदारं सकलसुखसंपादनक्षमं महान्तं धर्म ॥१८५१।। धम्मेण होदि पज्जो विस्ससणिज्जो पिओ जसंसी य। सुहसज्झो य णराणं धम्मो मणणिन्वुदिकरो य ॥१८५२॥ 'धम्मेण होदि पुज्जो' धर्मेण पूज्यो भवति । विश्वसनीयः प्रियो यशस्वी च भवति, सुखेन च साध्यो नराणां धर्मः । उक्तं च-दृष्टे श्रुते च विदिते स्मृते च धर्मे फलागमो भवतीति, मनसो निर्वृत्ति च करोति ॥१८५२॥ जावदियाई कल्लाणाई' माणुस्स-देवलोगे य । आवहदि ताण सव्वाणि मोक्खं सोक्खं च वरधम्मो ॥१८५३॥ 'जावदिगाई कल्लाणाइ' यावंति कल्याणानि स्वर्ग मनुष्यलोके च तानि सर्वाण्याकर्पति धर्मो मोक्ष सुखं च ॥१८५३॥ ते धण्णा जिणधम्म जिणदिटुं सव्वदुक्खणासयरं । पडिवण्णा दिढधिदिया विसुद्धमणसा णिरावेक्खा ॥१८५४॥ 'ते घण्णा' पुण्यवन्तः । जिनदृष्टं धर्म सर्वदुःखनाशकरं प्रतिपन्नाः शुद्धेन मनसा दृढधृतिका, निर्व्याकुलाः ।।१८५४।। अब धर्मानुप्रेक्षाका कथन करते हैं गा०-जो जीव सुदेवत्व सुमानुषत्व आदि कल्याण परम्पराके साथ अन्तमें मोक्षको प्राप्त करता है वही समस्त सुख सम्पादनमें समर्थ महान् धर्मको भावपूर्वक धारण करता है । अर्थात् भावपूर्वक धर्मका पालन करनेसे सांसारिक सखके साथ मोक्षसुख प्राप्त होता है॥१८५।। गा०-धर्मसे मनुष्य पूज्य होता हैं. सबका विश्वासपात्र होता है, सबका प्रिय और यशस्वी होता है। मनुष्य धर्मको सुखपूर्वक पालन कर सकते हैं। कहा भी है-धर्मकी श्रद्धा करनेपर, धर्मको सुननेपर, धर्मको जानने और धर्मका स्मरण करनेपर फलकी प्राप्ति होती है। तथा धर्मसे मनको शान्ति मिलती है ॥१८५२॥ ___ गा०-मनुष्यलोक और देवलोकमें जितने कल्याण हैं उन सबको उत्तमधर्म लाता है और अन्तमें मोक्षसुखको भी लाता है ॥१८५३॥ गा०-जिन्होंने जिन भगवान्के द्वारा कहे गये और सब दुःखोंका नाश करनेवाले जिन धर्मको दृढ़ धैर्यके साथ निर्मल मनसे और बिना किसी प्रकारको अपेक्षाके धारण किया वे पुण्यशालो हैं ।।१८५४॥ १. इं सग्गे य मणुअलोगे य -मु० ! १०४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy