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________________ ८२४ भगवती आराधना अत्र दृष्टान्तमाचष्टे द्विविधां निर्जरामवगमयितु कालेण उवायेण य पच्चंति जहा वणप्फदिफलाई । तह कालेण तवेण य पच्चंति कदाणि कम्माणि ।।१८४२।। 'कालेण उवाएण य' यथा कालेनोपायेन च वनस्पतीनां फलानि पच्यन्ते तथा कालेन तपसा पच्यन्ते कृतानि कर्माणि ॥१८४२।। तयोनिर्जरयोः का कस्य भवतीत्याशङ्कायामाचष्टे सव्वेसिं उदयमा गदस्स कम्मस्स णिज्जरा होइ । कम्मस्स तवेण पुणो सव्वस्स वि णिज्जरा होइ ॥१८४३।। 'सवेसिमुदयसमयागदस्स' सर्वेषां समयपूर्वके तपसि वृत्तानां अवृत्तानां च अथवा मिथ्यादृष्टयादीनां सम्यग्दृष्ट्यादीनां वा उदयावलिकाप्रविष्टस्य दत्तस्य फलस्य कर्मणो निर्जरा भवति । एतेन विपाकनिर्जरा स्वल्पेत्याख्यातं भवति । कथं न सर्वाणि कर्माणि गलन्तीति चेदुच्यते-सर्वाणि कर्माणि भिन्नस्थितिकानि सहकारिकारणानां द्रव्यक्षेत्रादीनां युगपदसान्निध्यादुदयं सर्वस्य नोपवजन्ति, ततो यदयप्राप्तं तदेवागच्छति नेतरदिति । 'तवेण पुणों' तपसा पुनः । 'कम्मस्स सव्वस्स वि' कर्मणः सर्वस्यापि निर्जरा भवति ॥१८४३।। ण हु कम्मस्स अवेदिदफलस्स कस्सइ हवेज्ज परिमोक्खो। होज्ज व तस्स विणासो तवग्गिणा डज्झमाणस्स ॥१८४४।। दोनों प्रकारको निर्जराको समझानेके लिये दृष्टान्त कहते हैं गा०-जैसे वनस्पतियोंके फल अपने समयपर भी पकते हैं और उपाय करनेसे समयसे पहले भी पक जाते हैं, उसी प्रकार पूर्वबद्ध कर्म भी अपनी स्थिति पूरी होनेपर अपना फल देते हैं और तपके द्वारा स्थिति पूरी होनेसे पूर्व ही फल देकर चले जाते हैं ॥१८४२।। उक्त दोनों निर्जराजोंमेंसे किसके कौन निर्जरा होती है, यह कहते हैं गा०-टी-सभी जीवोंके जो तप करते हैं या तप नहीं करते, अथवा सम्यग्दृष्टी हों या मिथ्यादृष्टी हों उन सब जीवोंके उदयावलीमें प्रवेश करके अपना फल देनेवाले कर्मो की निर्जरा होती है अर्थात् सविपाक निर्जरा तो सभी जीवोंके सदा हुआ करती हैं क्योंकि सभी जीव सदा कर्म करते हैं और सदा उनका फल भोगते हैं। इससे सविपाक निर्जरा थोड़े ही कर्मकी होती है यह सूचित होता है। शंका--सब कर्मों को निर्जरा क्यों नहीं होती ? समाधान-सब कर्मोंकी स्थिति भिन्न-भिन्न होती है । तथा सबके सहकारी कारण द्रव्य क्षेत्र आदि एक साथ नहीं मिलते अतः सब कर्म एक साथ उदयमें नहीं आते । अतः जिस कर्मका उदय होता है उसीकी निर्जरा होती है। शेषकी निर्जरा नहीं होती। किन्तु तप करनेसे सब कर्मो की निर्जरा होती है ।।१८४३॥ १. यसमयाग -आ० । २. दुदयमुपव्रजंति -अ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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