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________________ निर्जरानुप्रक्षोच्यते विजयोदया टीका इय सव्वत्थवि संवरसंवुडकम्मासवों भवित्तु मुणी | कुव्वंति तवं विविहं सुत्तुतं णिज्जराहेदुं || १८३९ ।। 'इय' एवं । 'सव्वत्यवि' उक्तः संवरप्रकारः । 'संवुडकम्मासवो भवित्तु मुणी' संवृतकर्मास्रवो भूत्वा मुनिः करोति विविधं तपः सूत्रोक्तं निर्जराहेतु ।। १८३९ ।। तवसा विणा ण मोक्खो संवरमित्तेण होइ कम्मस्स । भोगादीहिं विणा धणं ण हु खीयदि सुगुत्तं ॥१८४० ॥ 'तवसा विणा' तपसोऽन्तरेण न कर्ममोक्षो भवति संवरमात्रेण । सुरक्षितमपि धनं नैव हीयते उपभोगमन्तरेण तथा । तस्मात् तपोनुष्ठातव्यं निर्जरार्थं । का सा निर्जरा नाम ? पूर्वकृत कर्मशातनं तु निर्जरा || १८४० ॥ ८२३ पुव्वकदकम्मसडणं तु णिज्जरा सा पुणो हवे दुविहा । पढमा विवागजादा विदिया अविवागजाया य ॥। १८४१ ॥ 'पुव्वगदकम्मसडणं' पूर्वकृत कर्मपुद्गलस्कन्धावृतानामवयवानां जीवप्रदेशेभ्योऽपगमनं निर्जरा । तथा चोक्तं 'एकदेशकर्मसंक्षय लक्षणा निर्जरेति' । निर्जरा द्विविधा द्रव्यनिर्जरा भावनिर्जरा चेति । द्रव्यनिर्जरा नाम गृहीतानामशनपानादिद्रव्याणां एकदेशापगमनं वमनादिव । भावनिर्जरा नाम कर्मत्वपर्यायविगमः पुद्गलानां । सा पुनद्वविधा, आद्या विपाकजाता दत्तफलानां कर्मणां गलनं विपाकजा निर्जरा । द्वितीयाऽविपाकजाता ।। १८४१ ॥ अब निर्जरा अनुप्रेक्षाको कहते हैं गा०—इस प्रकार संवरके उक्त भेदोंके द्वारा मुनि कर्मों का आस्रव रोककर आगममें कहे अनेक प्रकारके तपोंको करता है जो निर्जराके कारण हैं ||१८३९ ॥ Jain Education International गा० - जैसे सुरक्षित भी धन उपभोग किये बिना नहीं घटता, उसी प्रकार तपके बिना कर्मो के संवरमात्रसे कर्मों का क्षय नहीं होता । अतः निर्जराके लिये तप करना चाहिये । पूर्व में बद्ध कर्मो के क्रमसे क्षयको निर्जरा कहते हैं ॥१८४०|| गा० - टी० - पूर्व में बांधे हुए पौद्गलिक कर्मस्कन्धोंके अवयवोंका जीवके प्रदेशोंसे अलग होना निर्जरा है । कहा भी है- 'कर्मों के एकदेशका क्षय निर्जराका लक्षण है । निर्जराके दो भेद हैं- द्रव्यनिर्जरा और भावनिर्जरा । खाये हुए भोजन पान आदि द्रव्योंके एकदेशका वमन आदिके द्वारा बाहर निकलना द्रव्यनिर्जरा है । और पुद्गलोंका कर्मरूप पर्यायको त्यागना भावनिर्जरा है । भावनिर्जराके भी दो भेद हैं- सविपाक निर्जरा और अविपाक निर्जरा । जो कर्म अपना फल दे चुके हैं उनकी निर्जरा सविपाक निर्जरा है और जिन कर्मों का विपाक काल नहीं आया है उन्हें तप आदिके द्वारा बलात् उदयमें लाकर खेरना अविपाक निर्जरा है || १८४१ || विशेषार्थ - द्रव्यसंग्रह आदिमें भी निर्जराके उक्त भेदोंका कथन है किन्तु उनमें फल दे चुकने वाले कर्म पुद्गलोंका जीवसे पृथक् होना द्रव्यनिर्जरा है और जीवके जिस भावसे यह द्रव्यनिर्जरा होती है उस भावको भावनिर्जरा कहा है || १८४१ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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