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________________ ८२२ गुप्तीनां संवरतामाख्याति - भगवती आराधना समिदिदिढणावमारुहिय अप्पमत्तो भवोदधिं तरदि । छज्जीवणिकायवघादिपावमगरेहिं अच्छित्तो ॥ १८३५ ॥ 'समदिविढनावमारुहिय' समितिसंज्ञितां दृढनावमारुह्य । 'अप्पमत्तो' अप्रमत्तो भवोदधि तरति षड्जीवनिकायवधादिपापमकरैरस्पृष्टः । एतेन समितेः संवरताख्याता ॥। १८३५ ॥ दारेव दारवालो हिदये सुप्पणिहिदा सदी जस्स । दोसा धंसंति ण तं पुरं सुगुत्तं जहा सत्तू ॥ १८३६ ॥ 'दारेव वारवालों' द्वारे द्वारपाल इव । हृदये सम्यक्प्रणिहिता वस्तुतत्त्वानां स्मृतिर्यस्य तं दोषा ना भिभवन्ति पुरं सुगुप्तं शत्रव इव ॥ १८३६ ॥ जो हु सदिविप्पहूणो सो दोसरिऊण गेज्झओ होइ । अंगो व चरंतो 'अरीणमविदिज्जओ चेव ।। १८३७|| 'जो खु सदिविप्पहूणो' यः स्मृतिहीनः । 'सो दोसरिऊण गेज्झओ होई' असौ दोषरिपुभिर्ग्राह्यो भवति । अरीणां मध्ये असहायोऽन्धः शत्रुग्राह्यो यथा ।। १८३७।। अमु यंतो सम्मत्तं परीसहच मुक्करे उदीरंतो । व सदी मोत्तव्वा एत्थ दु आराधणा भणिया ।। १८३८ || 'अमुयंतेण' अमुञ्चता । 'सम्मत्तं' रत्नत्रयं । 'परोस हसमोगरे' परीषहप्रकरे अभिभवत्यपि नैव स्मृतिमोक्तव्या । अत्राराधना कथिता । संवरः । ॥। १८३८ ॥ इससे गुप्तिको संवरका कारण कहा है गा० - प्रमादरहित साधु समितिरूपी दृढ़ नावपर आरूढ़ होकर छह कायके जीवोंके घातसे होनेवाले पापरूपी मगरमच्छोंसे अछूता रहकर संसार समुद्रको पार करता है ।। १८३५ ।। इससे समितिको संवरका कारण कहा है Jain Education International गा० - जैसे सुरक्षित नगरका शत्रु ध्वंस नहीं कर सकते, उसी प्रकार द्वारपर खड़े द्वारपालकी तरह जिसके हृदयमें वस्तु तत्त्वोंकी स्मृति बनी रहती है, दोष उसका अनिष्ट नहीं कर सकते || १८३६|| गा०-- जैसे शत्रुओंके मध्य में असहाय अन्धा व्यक्ति शत्रुओंके द्वारा पकड़ा जाता है । वैसे ही जिसे वस्तु तत्त्वोंका सतत स्मरण नहीं रहता, वह दोषरूपी शत्रुओंसे पकड़ा जाता है ।।१८३७॥ गा०-प -परीषहोंके समूह से पीड़ित होते हुए भी साधुको रत्नत्रयको न छोड़ते हुए तत्त्वोंका स्मरण नहीं छोड़ना चाहिये । सदा तत्त्वका स्मरण करते रहना चाहिये । इसीको यहाँ आराधना कहा है ||१८३८|| १. अडवीमवि - अ० आ० । संवर अनुप्रेक्षाका कथन समाप्त हुआ । २. अमुयंते आ० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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