SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 902
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८३५ विजयोदया टीका 'ज्झाणं धत्तसवितक्कसवीचारं' ध्यानं पृथक्त्वसवितर्कसवीचारं प्रथमशुक्लं भवति । सवितक्कक्कत्तावोचारं' सवितर्केकत्वावीचारं द्वितीयं शुक्लध्यानं ॥१८७२॥ सुहमकिरियं तु तदियं सुक्कज्झाणं जिणेहिं पण्णत्त । वेंति चउत्थं सुक्कं जिणा समुच्छिण्णकिरियं तु ।।१८७३॥ 'सुहुमकिरियं तु तदियं' तृतीयं शुक्लध्यानं जिनः प्रज्ञप्तं सूक्ष्मक्रियमिति । 'वेति चउत्थं सुक्कं' ब्रुवते चतुर्थं शुक्लं जिनाः समुच्छिन्नक्रियं ॥१८७३॥ पृथक्त्वसवितर्कसवीचारं व्याचष्टे गाथात्रयेण दव्वाइ अणेयाइं तीहिं वि जोगेहिं जेण ज्झायंति । उवसंतमोहणिज्जा तेण पुत्तत्ति तं भणिया ॥१८७४॥ 'दव्वाइं अणेयाई तोहि वि जोएहि जेण ज्झायंति' द्रव्याण्यनेकानि त्रिभिर्योगः परावर्तमाना येन चिन्तयन्त्युपशान्तमोहनीयास्तेन पृथक्त्वमिति प्रथमध्यानमुक्तम्, एतदर्थं कथयति-अन्यदन्यद्रव्यमवलम्ब्य प्रवृत्तेनान्येनान्येन योगेन प्रवृत्तस्यात्मनो भवतीति पृथक्त्वव्यपदेशो ध्यानस्येति ॥१८७४॥ जम्हा सुदं वितक्कं जम्हा पुन्वगदअत्थकुसलो य । ज्झायदि ज्झाणं एवं सवितक्कं तेण तं झाणं ॥१८७५।। 'जम्हा सुदं वितक्क' यस्मात् श्रुतं वितकं यस्मात् पूर्वगतार्थकुशलो ध्यानमेतत्प्रवर्तयति । तेन तत् ध्यानं सवितकं । चतुर्दशपूर्वाणां श्रुतत्वात्तदुपदिष्टोऽर्थः साहचर्यात् वितर्कशब्देनोच्यते। तेन वितर्केणार्थश्रुतेन ___ गा.-जिन भगवान्ने तीसरा शुक्लध्यान सूक्ष्मक्रिय कहा है और चतुर्थ शुक्ल समुच्छिन्नक्रिय कहा है ॥१८७३॥ आगे तीन गाथाओंसे पृथक्त्व सवितर्क सविचारका कथन करते हैं गा०-उपशान्त मोहनीय गुणस्थानवाले यतः तीन योगोंके द्वारा अनेक द्रव्योंको बदल बदलकर ध्यान करते हैं इससे इसे पृथक्त्व कहते हैं ॥१८७४।। विशेषार्थ-प्रथम शक्लध्यानका नाम पृथक्त्व है क्योंकि इसमें योगपरिवर्तनके साथ ध्येयका भी परिवर्तन होता रहता है इसलिये इसको पृथक्त्व कहते हैं। धर्मध्यान और शुक्लध्यानके स्वामियोंको लेकर मतभेद पाया जाता है। तत्त्वार्थसूत्र में श्रेणीसे नीचे धर्मध्यान और श्रेणीमें शुक्लध्यान कहा है । श्रेणि आठवें गुणस्थानसे प्रारम्भ होती है। अतः आठवेंसे ही पृथक्त्व शुक्लध्यान कहा है । किन्तु यहाँ ग्यारहवें गुणस्थानमें पृथक्त्व शुक्लध्यान कहा है । श्वेताम्बर परम्परामें भी ऐसा ही माना गया है। वीरसेन स्वामीने धवला टीका ( १३, पृ०७४ ) में भी ऐसा ही लिखा है। उनका कथन है कि कषायसहित जीवोंके धर्मध्यान होता है और कषायरहित जीवोंके शुक्लध्यान होता है। क्योंकि कषायका अभाव होनेसे ही उसका नाम शुक्लध्यान है । इस प्रथम शुक्लध्यानमें योगका और ध्येयका परिवर्तन होते रहनेसे इसे पृथक्त्व नाम दिया है ॥१८७४।। गा० टी०-यतः श्रुतज्ञानको वितर्क कहते है और यतः चौदह पूर्वो में आये अर्थमें कुशल १०५ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy