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________________ ४६६ भगवती आराधना दसणभट्टो भट्टो दंसणभट्टस्स पत्थि णिव्वाणं । सिज्झन्ति चरियभट्टा दंसणभट्टा ण सिझंति ॥७३७।। दंसणभट्टो भट्टो ण हु भट्टो होइ चरणभट्टो हु । दंसणममुयत्तस्स हु परिवडणं णत्थि संसारे ॥७३८।। 'दसणमट्टो भट्टो' दर्शनाभ्रष्टो भ्रष्टतमः । 'चरणभट्टो वि' चारित्रभ्रष्टोऽपि दर्शनादभ्रष्टः । 'ण हु' न वा । 'भट्टो होदित्ति' वाक्यशेषं कृत्वा संवन्धः । न तु तथा भ्रष्टो भवति चारित्रभ्रष्टः यथा दर्शना भ्रष्टः । 'दसणं' श्रद्धानं । 'अमुयत्तस्स' अत्यजतः । चारित्राद्धृष्टस्यापि 'परिवडणं संसारे णस्थि खु' परिपतनं संसारे नास्त्येव । असंयमनिमित्ताजितपापसंहतेरस्त्येव संसारः । किमुच्यते परिपतनं नास्तीति ? अयमभिप्रायः-परि समन्तात्सर्वासु गतिषु चतसृषु संचरणं नास्तीति । स्वल्पत्वात्संसारः सन्नपि नास्तीति व्यवहियते । तथा हि स्वल्पद्रविणोऽधन इत्युच्यते । दर्शनात्तु प्रभ्रष्टस्य अर्धपुद्गलपरिवर्तनं भवत्यतिमहत्संसार- . मिति निकृष्टतमो दर्शनाद्मष्टः ॥७३८॥ एक कस्य दर्शनस्य माहात्म्यं कथयति सुद्धे सम्मत्ते अविरदो वि अज्जेदि तित्थयरणामं । जादो दु सेणिगो आगमसिं अरुहो अविरदो वि ||७३९।। 'शुई शुद्धे । 'सम्मत्ते' सम्यक्त्वे । शङ्काद्यतिचाराभावात् । 'अविरदो वि' अप्रत्याख्यानावरणक्रोधमानमायालोभानामुदयात् हिंसादिनिवृत्तिपरिणामरहितोऽपि । 'तित्थयरणामकम्मं तीर्थकरत्वस्य कारणं कर्म मज्जानुरागी हैं । किन्तु तुम जिनशासनमें रहकर सदा धर्मानुरागी रहो ॥७३६।। - गा-जो सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट है वह भ्रष्ट है क्योंकि सम्यग्दर्शनसे भ्रष्टका अनन्तानन्त कालमें भी निर्वाण नहीं होता। जो चारित्रसे भ्रष्ट है किन्तु सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट नहीं है उसका कछ कालमें निर्वाण होगा। परन्त जिसके सम्यग्दर्शन नहीं है उसका निर्वाण अनन्त कालमें भी नहीं होगा ॥७३७॥ मा०-टो०-जो सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट है वह अत्यन्त भ्रष्ट है । किन्तु चारित्रसे भ्रष्ट होने पर भी सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट नहीं है वह भ्रष्ट नहीं है। सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट जैसा होता है चारित्रसे भ्रष्ट वैसा नहीं होता। चारित्रसे भ्रष्ट होकर भी जो सम्यग्दर्शनको नहीं त्यागता उसका ससारमें पतन नहीं होता। शंका-असंयमके निमित्तसे उपार्जित पाप कर्मके होनेसे उसका संसार रहता ही है । आप कैसे कहते हैं कि उसका संसारमें पतन नहीं होता ? __समाधान हमारे कथनका अभिप्राय यह है कि उसका चारों गतियोंमें भ्रमण नहीं होता। यद्यपि संसार रहता है किन्तु स्वल्प रहता है अतः 'नहीं रहता' ऐसा कहने में आता है जैसे स्वल्प धन वालेको निर्धन कहा जाता है । किन्तु जो सम्यग्दर्शन पाकर उससे भ्रष्ट हो जाता है उसका संसार अर्धपुद्गल परावर्तन प्रमाण रहनेसे महान् संसार होता है । अतः चारित्र भ्रष्टसे दर्शन भ्रष्ट अति निकृष्ट होता है ।।७३८।। गा-टो०-एकाकी सम्यग्दर्शनका माहात्म्य कहते हैं---अप्रत्याख्यानावरण क्रोध मान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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