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________________ विजयोदया टीका ४६७ अर्जयति । विनयसंपन्नतादिरपि तीर्थकरनामकर्मणो हेतुरेव ततः कोऽतिशयो दर्शनस्य इति चेत् दर्शने सत्येव तेषां तीर्थकरनामकर्मणः कारणता, नान्यथेति मन्यते । 'जादो ख' जातः खलु । 'सेणिगो' श्रेणिकः । 'आगमेसि' भविष्यति काले । अरुहो अर्हन 'अविरवो वि' असंयतोऽपि सन् । ननु श्रेणिको भविष्यत्यहन न त्वह तस्यातीतं तेन कथमुच्यते जात इति ? भविष्यदहत्त्वं न निष्पन्नं इति युक्तमुच्यते जात इति ॥७३९।। कल्लाणपरंपरयं लहंति जीवा विसद्धसम्मत्ता। सम्मसणरयणं णग्यदि ससुरासुरो लोओ ॥७४०॥ 'कल्लाणपरंपरयं' कल्याणपरम्परां इन्द्रत्वं, सकलचक्रलांछनतां, अहमिन्द्रत्वं, तीर्थकृत्त्वमित्यादिक पा: । 'विशुद्धसम्मत्ता' विशुद्धसभ्यक्त्वाः । 'सम्मइंसणरयणं' सम्यग्दर्शनरत्नं 'णग्यदि ससुरासुरो लोओ' सकलो लोको मूल्यतया दीयमानोऽपि न लभते सम्यक्त्वरत्नमित्यर्थः ।।७४०।। सम्मत्तस्स य लंभे तेलोक्कस्स य हवेज्ज जो लंभो । सम्मदसणलंभो वरं खु तेलोक्कलंभादो ।।७४१।। लघृण वि तेलोक्कं परिवडदि हु परिमिदेण कालेण । लघृण य सम्मत्तं अक्खयसोक्खं हवदि मोक्खं ।।७४२।। स्पष्टार्थतया न व्याख्यायते गाथाद्वयम् अनन्तरं सम्मत्ते भावणा इत्येतद्वयाख्यातं । सम्मत्तं ॥७४२॥ माया लोभके उदयसे हिंसा आदिकी निवृत्ति रूप परिणामोंसे रहित अविरत भी शंका आदि अतिचारोंसे रहित शुद्ध सम्यक्त्वके होने पर तीर्थंकर पदके कारणभूत कर्मका उपार्जन करता है। शंका-विनय सम्पन्नता आदि भी तीर्थंकर नाम कर्मके आस्रवमें कारण होते हैं तव उनसे सम्यग्दर्शनकी क्या विशेष समाधान-सम्यग्दर्शनके होने पर ही विनय सम्पन्नता आदि तीर्थंकर नाम कर्मके कारण होते हैं, उसके अभावमें कारण नहीं होते । देखो, असंयमी भी श्रेणिक भविष्यमें तीर्थंकर हुआ। शङ्का-श्रेणिक तीर्थकर होगा, भविष्यकालमें, अभी वह हुमा नहीं है, फिर उसे 'हुआ' क्यों कहा? समाधान-श्रेणिकका अर्हन्तपना आगे होगा, अभी हुआ नहीं है इसलिए 'भविष्यमें हुआ' ऐसा कहा है ।।७३९॥ गा०—विशुद्ध सम्यग्दृष्टी जीव इन्द्रपद, चक्रवर्तिपद, अहमिन्द्रपद, तीर्थकरपद आदि कल्याणपरम्पराको प्राप्त करते हैं। मूल्यके रूपमें समस्तलोक देनेपर भी सम्यक्त्वरत्न प्राप्त नहीं होता ।।७४०|| गा०–सम्यक्त्वकी प्राप्तिके बदलेमें यदि तीनों लोक प्राप्त होते हों तो त्रैलोक्यकी प्राप्तिसे सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति श्रेष्ठ है ।।७४१।। गा०–तीनों लोक प्राप्त करके भी कुछ काल बीतनेपर वे छूट जाते हैं । किन्तु सम्यक्त्वको प्राप्त करके अविनाशी सुखवाला मोक्ष प्राप्त होता है ।।७४२।। सम्यक्त्वभावनाका कथन समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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