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भगवती आराधना
परा भत्ती इत्येतद्वचाख्यानाय प्रवन्ध उत्तरः
अरहंतसिद्धचेदियपवयणआयरियसव्वसाहूसु ।
तिब्वं करेहि भत्ती णिन्विदिगिच्छेण भावेण ॥७४३॥ 'अरहतासिद्धचेदियपचयणआयरियसव्वसाहूसु' अर्हत्सिद्भसु तत्प्रतिबिम्बेपु, प्रवचने, आचार्येषु सर्वसाधुपु च । किव्वं अत्ति करेहि तीवां भक्ति कुर्विति । 'णिन्विदिगिछेण' विचिकित्सारहितेन । 'भावेण' परिपाामेन ॥४॥ चिनक्तिमाहात्म्यं कथयन्ति
संवेगजणिदकरणा णिस्सल्ला मंदरोव्व णिक्कंपा।
जस्स दढा जिणभत्ती तस्स भयं णत्थि संसारे ॥७४४॥ 'संवेगमथिदकरणा' संसारभोरुतया उत्पादितात्मलाभा। "णिसल्ला' मिथ्यात्वेन, मायया, निदानेन, च रहिता । संदरोग्य शिक्कंप्पा' मन्दर इव निश्चला। 'जस्स दढा जिणभत्ती' यस्य दढा जिनभक्तिः । 'तस्स संसारे मयं णत्यि' तस्म संसारनिमित्तं भयं नास्ति ॥७४४॥
एया नि सा समत्था जिणभत्ती दुग्गइं णिवारेदि । पुग्णाणि य पूरेदूं आसिद्धिपरंपरसुहाणं ।।७४५ ।। वह सिद्धचेदिए पवयणे य आइरियसव्वसाधूसु । भची होदि समत्था संसारुच्छेदणे तिव्वा ।।७४६॥ चिज्जा वि भत्तिवंतस्स सिद्धिमुवयादि होदि सफला य ।
किह पुण णिव्वृदिबीजं सिज्झहिदि अभत्तिमंतस्स ||७४७|| बिन्जा' विद्यापि । 'भत्तिवंतस्स' भक्तिमतः । “सिद्धिमुवयादि' सिद्धिमुपयाति । 'होदि सफला य' फलवतो च भवति । 'किव पुष' कथं पुनः । “णिव्वुदिबीज' निर्वृतेर्बीजं रत्नत्रयं 'सिज्झहिदि' सेत्स्यति ।
अब 'परा भक्ति' का व्याख्यान करते हैं
पाo-हे क्षपक ! ग्लानिरहित भावसे अर्हन्त, सिद्ध, उनके प्रतिबिम्ब, प्रवचन, आचार्य और सर्वसाधुओंमें सोव्र भक्ति करो ॥७४३।।
जिन भक्तिका माहात्म्य कहते हैं
मा०—संसारके भयसे उत्पन्न हुई, मिथ्यात्व माया और निदान शल्योंसे रहित तथा सुमेरुकी तरह निश्चल दृढ़ जिनभक्ति जिसकी है उसे संसारका भय नहीं है ।।७४४।।
. गा०–एक ही जिनभक्ति दुर्गतिका निवारण करने में, पुण्यकर्मोको पूर्ण करनेमें और मोक्षपर्यन्त सुखोंको परम्पराको देने में समर्थ है ।।७४५।।
गा-तथा सिद्ध, परमेष्ठी; उनके प्रतिबिम्ब, प्रवचन, आचार्य और सर्वसाधुओंमें तीव्रभक्ति संसारका विनाश करनेमें समर्थ है ।।७४६।।
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