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विजयोदया टीका विज्झायदि सूरग्गी जलादिएहिं ण तहा हु कामग्गी ।
सूरग्गी डहइ तयं अब्भंतरबाहिरं इदरो ।।८९२॥ "विज्झायदि सूरग्गी' विध्याति सूर्यजनितस्तापो जलादिभिर्न तथा जलादिभिः कामाग्निः प्रशाम्यति । सूर्यस्योष्णत्वं त्वचं दहति । कामाग्निरन्तर्बहिश्च दहति ॥८९२।।
जादिकुलं संवासं धम्मं णियबंधवम्मि अगणित्ता ।
कुणदि अकज्ज परिसो मेहुणसण्णापसंमढो ॥८९३।। 'जादिकुलं' मातृपितृवंशं । 'संवास' 'सहवसतः । धर्म बान्धवानपि अवगणय्य पुरुषोऽकार्य करोति मैथुनसंज्ञामूढः ॥८९३॥
कामपिसायग्गहिदो हिदमहिदं वा ण अप्पणो मुणदि ।
होइ पिसायग्गहिदो व सदा पुरिसो अणप्पवसो ॥८९४॥ 'कामपिसायग्गहिदो' कामपिशाचगृहीतः हितमहितं वा न वेत्ति, पिशाचेन गृहीतः पुरुष इव सदा अनात्मवशो भवति ॥८९५।।
णीचो व णरो बहुगं पि कदं कुलपुत्तओ वि ण गणेदि ।
कामुम्मत्तो लज्जालुओ वि तह होदि णिल्लज्जो ।।८९५।। 'णोचो व गरो' नीच इव नरः कृतमपि बहुमुपकारं न गणयति । कुलपुत्रोऽपि सन्कामोन्मत्तो, लज्जावानपि पूर्व विगतलज्जो भवति ।।८९५॥
कामी सुसंजदाण वि रूसदि चोरो व जग्गमाणाणं ।
पिच्छदि कामग्घत्थो हिदं भणंते वि सन व ।।८९६।। 'कामी सुसंजदाण वि' कामी सुसंयतानामपि रुष्यति । जाग्रतां चोर इव कामग्रस्तः, प्रेक्षते हितं प्रतिपादयतः शत्रुरिव ॥८९६॥
गा०-सूर्यसे उत्पन्न हुआ ताप तो जल आदिसे शान्त हो जाता है किन्तु कामाग्नि जलादिसे शान्त नहीं होती। सूर्यकी गर्मी तो चर्मको ही जलाती है किन्तु कामाग्नि शरीर और आत्मा दोनोंको जलाती है ॥८९२॥
गा०–मैथुन संज्ञासे मूढ़ हुआ मनुष्य मातृवंश, पितृवंश, साथमें रहनेवाले मित्रादि, धर्म, और बन्धु बान्धवोंकी भी परवाह न करके अकार्य करता है ।।८९३॥
गा०-कामरूपी पिशाचके द्वारा पकड़ा गया मनुष्य अपने हित अहितको नहीं जानता । पिशाचके द्वारा पकड़े गये मनुष्यकी तरह अपने वशमें नहीं रहता ।।८९४।।
गा०--जैसे नीच मनुष्य किये गये उपकारको भुला देता है वैसे ही कुलीन वंशका भी व्यक्ति कामसे उन्मत्त होकर पूर्वमें लज्जावान होते हुए निर्लज्ज हो जाता है ॥८९५॥
गा०-जैसे चोर जागते हुए व्यक्तियोंपर रोष करता है वैसे ही कामी संयमीजनोंपर रोष १. सहवसनं-आ० मु०। संवासं सहवसतो जनान् मित्रादोन्-मूलारा० ।
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