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________________ विजयोदया टीका ५७१ 'बाहिरसंगा' वाह्यपरिग्रहाः । 'खेत्तं' कर्षणाद्यधिकरणं । 'वत्थु" वास्तु गहं । 'धणं' सुवर्णादि । 'धण्ण' धान्यं व्रीह्यादि । 'कुप्प' कुप्यं वस्त्रं । 'भंड' भाण्डशब्देन हिङ्गमरिचादिकमुच्यते । दुपदशब्देन दासदासीभृत्यवर्गादि । 'चउप्पय' गजतुरगादयश्चतुष्पदाः । 'जाणाणि' शिबिकाविमांनादिकं यानं । 'सयणासणे' शयनानि आसनानि च ।।१०१३।। बाह्यमलमनिराकृत्याभ्यन्तरकर्ममलं ज्ञानदर्शनसम्यक्त्वचारित्रवीर्याव्याबाधत्वानामात्मगुणानां छादने व्यापृतं न निराकर्तुं शक्यते इत्येतद्दृष्टान्तमुखेनाचष्टे जह कुंडओ ण सक्को सोधेदुं तंदुलस्स सतुसस्स । तह जीवस्स ण सक्का मोहमलं संगसत्तस्स ॥१११४॥ 'जह कंडओ ण सक्का' तुषसहितस्य तन्दुलस्यान्तर्मलं बाह्ये तुषऽनपनीते यथा शोधयितुमशक्यं । तथा बाह्यपरिग्रहमलसंसक्तस्याभ्यन्तरकर्ममलं अशक्यं शोधयितुमिति गाथार्थः । सपरिग्रहस्य कस्मान्न कर्मविमोक्षो? जीवाजीवद्रव्ये बाह्यपरिग्रहशब्दनोच्यते । तौ च सर्वदा सर्वत्र सन्निहिताविति बन्धक एवायमात्मा स्यादिति । एवं च मुक्त्यगाव इति चोदिते, न तयोः सम्बन्धहेतुरपि तु लोभादयः परिणामाः । लोभादिपरिणामहेतकं बाह्यद्रव्यग्रहणं ॥१०१४॥ अतो यो वाह्य मुपादत्तेऽभ्यन्तरपरिणाममन्तरेण नंवादत्त इति वदति- . रागो लोभी मोहो सण्णाओ गारवाणि य उदिण्णा । तो तइया घेत्तुजे गंथे बुद्धी गरो कुणइ ॥१११५।। गा०-खेती आदिका स्थान क्षेत्र, मकान, सुवर्ण आदि धन, जौ आदि धान्य, कुप्य अर्थात् वस्त्र, भाण्ड शब्दसे हींग मिर्च आदि, दुपद शब्दसे दास दासी सेवक आदि, हाथी घोड़े आदि चौपाये, पालकी विमान आदि यान तथा शयन आसन आदि ये दस बाह्य परिग्रह हैं ॥१११३।। वाह्य परिग्रहके त्याग किये विना ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व, चारित्र, वीर्य और अव्यावाधत्व नामक आत्म गुणोंको ढाँकने वाले अभ्यन्तर कर्ममलको दूर नहीं किया जा सकता, यह दृष्टान्त द्वारा कहते हैं गा०-टी०-~-जैसे तुष सहित चावलका तुष दूर किये बिना उसका अन्तर्मलका शोधन करना शक्य नहीं है। वैसे ही जो बाह्य परिग्रहरूपी मलसे सम्बद्ध है उसका अभ्यन्तर कर्ममल शोधन करना शक्य नहीं है। शंका-परिग्रह सहित व्यक्तिका कर्मबन्धनसे छुटकारा क्यों नहीं होता । जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य वाह्य परिग्रह कहे जाते हैं। और वे दोनों सदा सर्वत्र जीवके समीप रहते हैं अतः आत्मा सदा कर्मका बन्धक ही रहेगा । और उसे कभी मुक्ति नहीं होगी। समाधान-ऐसा नहीं है, उन जीव द्रव्य और अजीव द्रव्यके निकट रहते हुए भी लोभादिरूप परिणाम उनसे सम्बन्धमें कारण होते हैं । लोभादिरूप परिणामोंके कारण जीव वाह्य द्रव्यको ग्रहण करता है ।।१११४॥ ___ अतः जो अभ्यन्तर लोभादि परिणामके विना बाह्य द्रव्यको ग्रहण करता है, वह ग्रहण नहीं करता, यह कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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