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________________ ५७० भगवती आराधना 'तेल्लोक्काडविडहणो' त्रैलोक्याटविदहनः । कामाग्निविषयवृक्षे प्रज्वलिते यौवनतणसञ्चरणचतुरं यन्न दहत्यसौ धन्यः ॥११०९।। विसयसमुदं जोव्वणसलिलं हसियगइपेक्खिदुम्मीयं । धण्णा समुत्तरंति हु महिलामयरेहिं अच्छिक्का ॥१११०॥ 'विसयसमुद्दे' विषयसमुद्रं । 'यौवनसलिलं' हसनगमनप्रेक्षणतरङ्गनिचितं । धन्याः सम्युगुत्तरन्ति युवतिमकरैरस्पृष्टाः ।। चतुर्थ व्रतं व्याख्यातं ।। चदुत्थं ॥१११०।। पञ्चममहाव्रतनिरूपणायोत्तरप्रवन्धः-- - अभंतरबाहिरए सव्वे गंथे तुमं विवज्जेहि । कदकारिदाणुमोदेहिं कायमणवयणजोगेहिं ॥११११।। 'अन्भंतरबाहिरगे' अभ्यन्तरान्वाह्यांश्च । 'सम्वे गंथे' सर्वान्ग्रन्थान् । 'तुमं विवज्जेहि' वर्जय भवान् । 'कदकारिदाणुमोहि' कृतकारितानुमननैः । 'कायमणवयणजोहि' कायेन मनसा वाचा वा ॥११११॥ तत्राभ्यन्तरपरिग्रहभेदं निरूपयति गाथा मिच्छत्तवेदरागा तहेव हासादिया य छद्दोसा । चत्तारि तह कसाया चउदस अब्भंतरा गंथा ॥१११२।। 'मिच्छत्तवेदरागा' वस्तुयाथात्म्याश्रद्धानं मिथ्यात्वं, वेदशब्देन स्त्रीपुन्नपुंसकवेदाख्यानां कर्मणां ग्रहणं । तज्जनिताः स्यादीनां अन्योन्यविषयरागाः । स्त्रियः पुंसु रागः, पुंसो युवतिषु, नपुंसकस्योभयत्र । 'हस्सादिगा य छद्दोसा' हास्य, रतिररतिः शोको, भयं जुगुप्सेति । एते पड्दोपाः । 'चत्तारि तह कसाया चोद्दस अभंतरा गंथा' चत्वारस्तथा कषायाश्चतुर्दशैते अभ्यन्तराः परिग्रहाः ॥१११२॥ बाहिरसंगा खेत्तं वत्थु घणघण्णकुप्पभंडाणि । दुपयचउप्पय जाणाणि चेव सयणासणे य तहा ॥१११३॥ गा०-इस विषयरूप समुद्र में यौवनरूप जल है, स्त्रीका हँसना चलना देखना उसके लहरें हैं । और स्त्रीरूप मगरमच्छ है जो इन मगरमच्छोंसे अछूते रहकर इस समुद्रको पार करते हैं वे धन्य हैं ॥१११०॥ इस प्रकार चतुर्थ ब्रह्मचर्य व्रतका व्याख्यान हुआ। पंचम महाव्रतका कथन करते हैं गा०-हे क्षपक ? कृत कारित अनुमोदना और मन वचन कायसे तुम सब अन्तरंग और बहिरंग परिग्रहका त्याग करो ॥११११।। मिथ्यात्व, वेद राग, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और चार कषाय ये चौदह अन्तरंग परिग्रह हैं ॥१११२।। टी०-वस्तुके यथार्थ स्वरूपका श्रद्धान न करना मिथ्यात्व है। वेद शब्दसे स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद नामक कर्मोंका ग्रहण किया है। उनके उदयसे उत्पन्न स्त्री आदिके पारस्परिक रागको यहाँ अन्तरंग परिग्रह कहा है। स्त्रियोंका पुरुषोंमें राग, पुरुषोंका स्त्रियोंमें राग और नपुंसकोंका दोनोंमें राग पारस्परिक राग है ॥१११२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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